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________________ ( २७ ) इन दोनों में केवल श्लोक का अन्तर है, भाव दोनों उदाहरणों का बिल्कुल एक ही है । इसके अतिरिक्त 'अकाण्डे प्रथनं, प्रकाण्डे छेदः दीप्तिः पुनःपुनः तथा प्रङ्गिगोऽननुसन्धानम्, इन चारों रस दोषों के उदाहरण काव्यप्रकाश तथा नाट्यदर्पण में बिल्कुल एक ही दिए हैं। ३. रस-दोषों के निरूपण के प्रसङ्ग में काव्यप्रकाश में 'व्यभिचारि-रस-स्थायिभावानां शब्दवाच्यता' को सबसे पहिला रस दोष कहा गया है। अर्थात् मम्मट के अनुसार व्यभिचारिभाव अथवा रस अथवा स्थायिभावों को अपने वाचक शब्द द्वारा कथन नहीं करना चाहिये । उनका स्त्रशब्द से कथन करने पर रसानुभूति का अपकर्षक होने से दोषाधायक होता है । किन्तु नाट्यदर्पणकार इस बात से सहमत नहीं हैं । इसलिए इस विषय में मम्मट का खण्डन करते हुए उन्होंने लिखा है "केचित्तु 'व्यभिचारि-रस- स्थायिनां स्वशब्दवाच्यत्वं रसदोषमाहुः । तदयुक्तम् । व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपदप्रयोगेऽपि विभावपुष्टे: दूरादुत्सुकमागते विवलितं सम्भाषिणि स्फारितं, संदिपत्यरुणं गृहीतवसने किञ्चाञ्चित लतम् । मानिन्याश्चरणानतिव्यतिकरे वाष्पापूक्षणं, चक्षुर्जातमहो ! प्रपंचचतुरं जातागसि प्रेयसि ॥ इसमें उत्सुक दिवलित आदि व्यभिचारिभावों का स्वाद कथन होने पर भी रस की परिपुष्टि हो रही है, इस लिए विभावादि का स्वशब्द से ग्रहण दोष नहीं है । यह नाट्यदर्पणकार का अभिप्राय है । ४. इसी प्रकार कष्टकल्पनया व्यक्तिरनुभावविभावयोः' [का० प्र० कारिका ६०. पू० ३५७ ] को दूसरा रसदोष माना गया है। पर नाट्यदर्पणकार का मत इस विषय में भी मम्मट से भिन्न है । अपने मत को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है"एवमुभयरस साधारण विभावपदानां कष्ट ेन सन्दिग्धत्वलक्षणो वाक्यदोष एव । यथा - नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोऽपि परिहरति मति रति लुनीते, स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति बत विषमा दशा स्वदेहं परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः ॥ मत्र रतिपरिहारादीनां विभावानां करुणादावपि " सम्देह इति ।" सम्भवात् शृङ्गारं प्रति भावत्व[ ना० द० ३ २३ ] इस प्रकार मम्मट ने काव्य प्रकाश में जिन माठ प्रकार के रसदोषों का वर्णन किया या नाट्यदर्पणकार ने उनमें से तीन का बिल्कुल खण्डन कर दिया, और चार को ज्यों का यों ग्रहण कर लिया है, और एक को उदाहरण में परिवर्तन करते हुए स्वीकार कर लिया है । रामचन्द्र और अभिनवगुप्त -- नाट्यशास्त्र पर 'अभिनवभारती' नामक विवृति के निर्माता अभिनवगुप्त भी नाट्यदर्पणकार के पूर्ववर्ती श्राचार्य हैं। रस-निरूपण के प्रसङ्ग में नाट्यदर्पणकार ने उनके मत के बाधार पर अपने मत की स्थापना की है। किन्तु उसमें भी उन्होंने अभिनवगुप्त की अपेक्षा कुछ वनता उत्पन्न कर दी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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