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( २२ )
दशरूपकार ने जो नाटक का लक्षण किया है उसमें 'धीरोदात्तः प्रतापवान्' [३-२२] नायक का धीरोदात होना आवश्यक बतलाया है। अर्थात् दशरूपककार के अनुसार नाटक का नायक केवल धीरोदात्त ही हो सकता है अन्य नहीं । इस विषय पर नाट्यदर्पणकार का दशरूपककार से मत भेद है । नाटघदर्पणकार धीरललित यादि को भी नाटक का नायक मानते हैं । दशरूपककार केवल धीरोदात्त को ही मानते हैं । धीरललित आदि को नहीं मानते। इसी कारण रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने दशरूपक का खण्डन करते हुए लिखा है
' [ 'राजान' इति] बहुवचनाद व्यक्तिभेदेन चतुःस्वभावो नाटकस्य नेता । न पुनरेकस्यां व्यक्ती, एकत्र प्राधान्येन स्वभावचतुष्कस्य वर्णयितुमशक्यत्वादिति । प्रधाननायकस्य पायं नियमः । गौणनेतृणं तु स्वभावान्तरमपि पूर्वस्वभावत्यागेन निबध्यते ।
ये तु नाटकस्य नेत्रं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते, न ते मुनिसमयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललित दीनामपि नामकानां दर्शनात्, कविसमयबाह्याश्च ।
[ नाट्यदर्पण १-० ]
इस उद्धरण में नाट्यदर्पणकार ने 'केवल धीरोदात्त को नाटक का नायक मानने से भरतमुनि के मत को न समझने वाला कहा है । भरत मुनि ने जो नाटक का लक्षरण किया है वह निम्न प्रकार है-
प्रख्यातवस्तुविषयं प्रख्यातोदात्तनायकं चैव । राजर्षिदेश्यचरितं तथैव दिव्याश्रयोपेतम् ॥ नानाविभूति संयुतमृद्धिविलासादिभिर्गुणैश्चैव । प्रवेशकाढ्यं भवति हि तन्नाटकं नाम ।
[ नाट्यशास्त्र अ०१८, १०-११]
भरतमुनि के इस नाटक लक्षण में स्पष्ट रूपसे 'प्रख्यातोदात्तनायक' पद से नाटक में उदात्त नायक का प्रतिपादन किया है। इसी के प्राधार पर धनञ्जय ने 'दशरूपक' में 'धीरोदात्तः प्रतापवान्' आदि लिखा है । किन्तु रामचन्द्र उसे भरतमुनि के गत को समझने वाली बात कहते हैं । यह बात कुछ अटपटी सी प्रतीत होती है । नाट्यशास्त्र के वर्तमान संस्करणों में उपलब्ध पाठ के अनुसार तो दशरूपक का मत भरत का अनुगामी हो है विरोधी नहीं । सम्भव है रामचन्द्र - गुणचन्द्र के पास नाट्यशास्त्र का जो संस्करण रहा हो उसमें कुछ अन्य प्रकार का पाठ पाया जाता हो । यदि उस पाठ को जिसके आधार पर वे दशरूपककार को भरतमुनि के मतको न समझने वाला कह रहे हैं, यहाँ दे दिया होता तो बात अधिक स्पष्ट हो जाती, उसके बिना नाट्यदर्पणकार की बात स्पष्ट रह जाती है । परन्तु इस विषय में नाट्यदर्पणकार ने दूसरी बात यह भी लिखी है कि- 'नाटकेषु धीरललितादीनामपि नायकानां दर्शनात् कविसमयबाह्याश्च' । अर्थात् नाटकों में धीर ललित श्रादि नायक भी पाए जाते हैं, अतः दशरूपककार का मत कवि सम्पदाय के विपरीत भी है। यह बात कुछ अधिक स्पष्ट है ।
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(२) नाट्यदर्पणकार द्वारा की गई दशरूपक की आलोचना का दूसरा प्रसङ्ग 'प्रकरण' के लक्षण में प्राया है। 'प्रकरण' का लक्षण 'दशरूपक' में निम्न प्रकार किया गया है"अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्यं लोकसंश्रयम् । अमात्य विप्र-वणिजामेकं कुर्याच्च नायकम् ॥
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