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________________ ( २१ ) बेवास्तथास्तु विक्षयारत्यारोपमा प्ररोचनामुखं चैव वीपी प्रहसनं तथा [पापशास्त्र ४-01] इस श्लोक में प्ररोचना, मामुख मादि को उस मारता वृत्ति का भेद बतलाया गया है। प्ररोचना, भामुख भादि का तो बीभत्स तथा करुण के अतिरिक्त अन्य रसों से भी सम्बन्ध है। इसलिए भरतमुनि के इन वचनों में विरोध प्रतीत होता है । इसकी आलोचना करते हुए नाटपदर्पणकार ने लिखा है कि ___ "ये तु भारत्यां बीभत्स-करणी प्रपनाः, त: सरसबीपी-प्रधानशृङ्गारवीरमाणप्रधानहास्यप्रहसनानि स्वयमेव भारत्यामेव वृत्ती नियंत्रितानि नावेक्षितानि ।" 'ये तु' से यहां भरतमुनि का ग्रहण है । जिन भरतमुनि ने भारती वृत्ति में भी मत्स तथा करुण रस का समावेश माना है, उन्होंने स्वयं ही सर्वरसावीथी, और अङ्गार. या वीर रस जिसमें मुख्य है इस प्रकार के भाण तथा हास्यरस जिसमें प्रधान रहता है उन प्रहसनों की भारती वृत्ति में रचना का जो निश्चय पहिले किया है, उसकी उपेक्षा कर दी है । प्रत: उनके इस कयन में 'वक्तोव्याघात' दोष पाता है। इस प्रकार हम देखते है कि जहां प्रायश्यकता पड़ी है वहां नाट्यदर्पणकार ने भरतमुनि की मालोचना भी की है। नाट्यर्पण और बशरूपक नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अपने इस ग्रन्य में प्रायः १३ बार 'मन्ये' 'केचित् पादि शब्दों से अपने पूर्ववर्ती माटघलक्षणकार धनञ्जय के दशरूपक का उल्लेख किया है । इनमें से दो स्थानों पर तो उनके मत को पालोचना करते हुए उन्हें 'न मुनिसमयाध्यवसायिनः' और परसम्प्रदायवन्ध्यः ' अर्थात् भरतमुनि के अभिप्राय को न समझ सकने वाला कहा है। शेष ११ स्थलों पर मुखसन्धि प्रादि के पलों के विविष लक्षणों में अपने लक्षणों से दशरूपक में विसाए गए लक्षणों में जो भेद पाया जाता है उसका प्रदर्शन कराया है। जिन दो स्थलों पर रामचन्द्रपुणचन्द्र ने धनम्जय को 'न मुनिसमयाध्यवसायिनः' भरत मुनि के मत को न समझने वाला बतलाया है उनमें से एक स्थल नाटक-लक्षण के अवसर पर और दूसरा प्रकरण-लक्षण के अवसर पर पाया है। १. नाटक के लक्षण में नाटपदर्पणकार ने 'ख्याताघराजचरितं' [कारिका ५] यह एक विशेषण दिया है । इसके अनुसार किसी इतिहास-प्रसिद्ध पूर्ववर्ती राजा के चरित का अवलम्बन करके हो नाटक की रचना करनी चाहिए । अर्थात् इतिहास-प्रसिद्ध पूर्वकालीन राजा ही नाटक का नायक हो सकता है। इसके बाद अगली छठी कारिका में धीरोदात्त, धीरोखत, धीरललित तथा धीरप्रशान्त ये चार प्रकार के नायक-स्वभाव बतला कर प्रत्येक के उत्तम, मध्यम दो भेद किए है। इस प्रकार स्वभावभेद के माधार पर नायक के ६ भेद हो जाते हैं । इससे पगली सातवीं कारिका में यह दिखलाया है कि 'देवा धीरोद्धता:' देवता लोग धीरोद्धत स्वभाव के होते है। धीरोदात्ता: सैन्येशमन्त्रिणः' सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त स्वभाव के होते है। 'धीरशान्ता परिणविप्राः' वणिक् पोर विप्र धीरप्रशान्त स्वभाव के होते हैं । और अन्त में 'राजानस्तु चतुर्विधाः' राजा चारों प्रकार के स्वभाव वाले होते हैं, यह कहा है। इसके अनुसार नाटक का नायक चारों प्रकार के स्वभाव वाला हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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