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का० २६, सू० २६ ] प्रथमो विवेकः
[ ६५ यथा वा 'सत्यहरिश्चन्द्रे'
"सत्वैकत्तानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् ।
प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः॥" इत्यामुखोक्तं हरिश्चन्द्रः पठति । यथा वा अस्मदुपज्ञ एव 'यादवाभ्युदये'----
उदयाभिमुख्यभाजां सम्पत्त्यर्थं विपत्तयः पुंसाम ।
ज्वलितानले प्रपातः कनकस्य हि तेजसो वृद्धयै ।। इति नाटकपात्रं गुप्तमन्त्रः पठति । इस पर न पड़ जाय । इस लिए वह बड़े यत्न-पूर्वक राजा उदयनकी दृष्टिसे उसको बचाए रखने का यत्न करती थी। किन्तु राजमहल में रहकर यह कब तक सम्भव था । माखिर राजा के कानों तक उस के रूप-लावण्यकी चर्चा पहुँची ही। और फिर सब प्रकारके उपायोंका अवलम्बन करके राजाने उसका साक्षात्कार करने और भन्तमें उसके साथ विवाह करने में सफलता प्राप्त कर ही ली।
____ इस क्रमसे अनुकूल देवने सिंहल नामक दूसरे द्वीपसे, समुद्र के मध्यसे और दिशाओं छोरसे रत्नावलीको लाकर उदयनके साथ सम्बद्ध कर ही दिया। इस प्रकार प्रामुखमें जो यह श्लोक केवल नटीकी सान्त्वनाके लिए कहा गया था वह नाटककी मुख्य कथा वस्तुका स्पर्श कर रहा है। इसलिए प्रामुखकी समाप्तिके बाद जब नाटकके पात्रके रूपमें उदयनके मन्त्री योगन्धरायण रङ्गमञ्च पर प्रविष्ट होते हैं तो फिर वे इस श्लोकको दोहराते हैं । पामुख में पढ़ा हुअा यह श्लोक मुख्य कथाभागका स्पर्श करनेवाला होनेपर भी केवल नटोक्तिमात्र था, नाटकका भाग नहीं। इसी लिए मुख्य नाटकसे सम्बद्ध करने के लिए योगन्धरायणके द्वारा उसका पुनः पाठ दिखलाया गया है। इसी प्रकारके और उदाहरण भी मागे देते हैं।
अथवा जैसे 'सत्यहरिश्चन्द' [नाटक] में--
केवल सत्व-प्रधान वृत्तियों वालों और प्रतिज्ञात प्रर्यको [निश्चित रूपसे पूर्ण करने वालों के मार्ग में बाधा डालने के लिए बैंव भी समर्थ नहीं होता है फिर साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या।
प्रामुखमें कहे हुए इस [इलोक] को [नाटक के पात्रके रूपमें प्रविष्ट हमा] हरिश्चन्द्र [फिर दुबारा] पढ़ता है।
अथवा. जैसे हमारे ही बनाए हए यादवाभ्युदय में
उन्नतिकी ओर प्रगतिशील पुरुषोंकी विपत्तियां भी उनके अभ्युदय [सम्पत्ति के लिए ही होती हैं । सोनेका प्रज्वलित अग्नि में पड़ना भी उसकी कान्तिको बढ़ानेवाला होता है।
[प्रामुखमें पाए हुए कथा-स्पर्शी इस बीजभूत श्लोकको] गुप्तमन्त्र [नामका पात्र फिर पढ़ता है।
ये तीनों श्लोक उस-उस नाटकके प्रामुखमें किसी अन्य रूपमें कहे गए हैं किन्तु उनके द्वारा मुख्य नाटकके पाख्यान वस्तुको बीज रूपसे सूचना मिलती है। सूत्रधार भी मुख्य नाटकके पाख्यान-वस्तुको संक्षिप्त रूपमें सूचित करनेकी दृष्टिसे ही उन श्लेषमय श्लोकोंका
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