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________________ नाट्यदर्पणम् [ का० २६, सू० २६ तत्र बाज क्वाचद् व्यापाररूपम् । यथा रत्नावल्यां वत्सराजस्य रत्नावलीप्राप्तिहेतुरनुकूलदेवः सागरिकान्तःपुर निक्षेपादि यौगन्धरायण व्यापारः । क्वचित्तु व्यसननिवृत्तिफले रूपके व्यसनोपक्षेपरूपम् । यथा 'मायापुष्पके' शापः प्रविश्य वचनक्रमेणाह - ६६ कैकेयी क्व पतिव्रता भगवती क्वैवंविधं वाग्विषं धर्मात्मा क्व रघूद्वहः क्व गमितोऽरण्यं सजायानुजः । क्व स्वच्छो भरतः क्व वा पितृबधान्मात्राधिकं दह्यते किं कृत्वेति कृतो मया दशरथे वध्ये कुलस्य क्षयः ॥ प्रयोग करता है । परन्तु यामुख भाग में प्रयुक्त इस प्रकारकी उक्तियों को बीज नहीं माना जाता है । प्रमुख के बाद बीजका ग्रारोपण होता है । इसी लिए प्रमुखकी समाप्ति के बाद मुख्य नाटकका जो पात्र रङ्गमञ्चपर आता है उसके द्वारा इस प्रकारकी उक्तियोंको पुनः कहलाकर नाटककार बीजका आरोपण करता है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है । यह बीज रूप उपाय, नाटकों के आख्यान वस्तुके अनुसार विभिन्न रूपका होता है । नाटकका अवसान जिस रूप में होना है उसीके अनुसार नाटकके आरम्भ में उसका बीजारोपण किया जाता है । इस प्रकारके चार उदाहरण ग्रन्थकार आगे प्रस्तुत करते हैं । इनमें से पहिला उदाहरण रत्नावली नाटिकासे दिया गया है । रत्नावली नाटिका में जैसाकि पहिले कहा जा चुका है सागर से प्राप्त हुई रत्नावलीको यौगन्धरायणने सागरिका नामकी अपनी बहिन कहकर उदयनके राजमहल में वासवदत्ताके पास रख दिया है । यही इसका बीज भाग है । इसीके द्वारा वत्सराज उदयनको श्रागे चलकर रत्नावलीकी प्राप्ति हो सकी है । यह बीज यौगन्धरायणका व्यापार रूप है । इसी बात को आगे लिखते हैं- और वह बीज कहीं व्यापाररूप होता है । जैसे रत्नावली [नाटिका में] वत्सराज [उदयन] को रत्नावलीको प्राप्ति करानेवाला देवकी अनुकूलतासे युक्त सागरिकाका अन्तःपुर में [ वासवदत्ता के समीप ] रखने श्रादिका यौगन्धरायणका व्यापार । इस प्रकार रत्नावली में यौगन्धरायणका व्यापार बीजभूत उपायके रूपमें प्रयुक्त हुया है । इसमें रत्नावलीकी प्राप्ति नाटकका अन्तिम फल अभीष्ट हैं इस लिए रत्नावली का अन्तःपुर-निक्षेप उस का जनक होनेसे 'बीज' है । जिस नाटक में किसी विपत्तिकी निवृत्ति आख्यान वस्तुका चरम फल अभीष्ट होता है उसमें उस विपत्तिका प्रारम्भ हो 'बीज' रूप उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका उदाहरण आगे देते हैं । कहीं, जहाँकि [ नायकपर श्रानेवाली किसी] विपत्तिका निवारण ही [नाटकका मुख्य ] फल है। उस नाटकमें विपत्तिका प्रारम्भ [बीज रूपमें प्रस्तुत किया जाता है ] । जैसे 'मायाgote' [नाटक] में [ श्रवणकुमारके वध के बाद उसके अन्धे माता-पिता द्वारा दशरथको दिया हुआ ] शाप [ मानव रूपमें] प्रविष्ट होकर वचनक्रमसे [नाटकके भावी श्राख्यानं - वस्तुको ] कहता है कहाँ तो पतिव्रता भगवती कैकेयी और कहाँ इस प्रकारका वारणीका विष [ उगलना ], कहाँ धर्मात्मा रामचन्द्र और कहाँ उसको स्त्री और भाईके माथ वनको भेजा जाना, कहाँ स्वच्छ हृदय भरत और कहाँ पिताके वधके कारण मात्रासे भी अधिक अपरिमित सन्तापको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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