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________________ नाट्यदर्पणम् [ का० २६, सू०१६ "द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् । पानीय झटिति घट यति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ॥" इत्याद्यामुखोक्तं यौगन्धरायणः पठति । प्रामुख-भागका नाटकको मुल्य माल्यान-वस्तु या इतिवृत्त कथा आदिके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । इस [प्रामुख] में जो नाटकके मुख्य कथा-भाग [अर्थ] को स्पर्श करनेवाली नटोंकी उक्तियां होती हैं वे प्रयोगकी अवतरणिकाकेलिए ही होती हैं [मुख्य नाटकका अङ्ग नहीं होती है । इसी लिए प्रामुखमें कही हुई बीजभूत उक्तियोंको [प्रामुखके बाद] प्रविष्ट हुमा नाटकका पात्र फिरसे दुहराता है । इसीलिए रत्नावलीमें---- "अनुकूलताको प्राप्त हुआ [अभिमुखीभूतः] वैव, अन्य द्वीपसे, सागरके बीचसे और विशाओंके छोरसे भी अपने अभीष्ट अर्थको लाकर मिला देता है।" प्रामुखमें कहे हुए [नाटकके कथाभागको स्पर्श करनेवाले] इस श्लोक को प्रिामुख के बाद प्रविष्ट हुमा नाटकका पात्र] यौगन्धरायण फिर पढ़ता है। ___ रत्नावलीके प्रामुखमें नटीने नटसे यह कहा था कि मेरी एक ही लड़की है तुमने बड़े दूर देशमें उसका सम्बन्ध पक्का कर दिया है। पता नहीं इतनी दूरसे आकर वह कब मेरी लड़कीका पाणिग्रहण करेगा। मैं तो इसी चिन्तामें मरी जा रही हूँ। इसलिए मेरा मन गाने-वानेको नहीं करता है । इसके उत्तरमें नटने इस श्लोकको कहा है । उसका भाव यह है कि तुम चिन्ता क्यों करती हो । भगवान के अनुकूल होनेपर वे तो दूसरे द्वीपसे, समुद्रके मध्यसे मोर दिशामोंके छोरसे भी अभिमत प्रोंको लाकर मिला देते हैं। तब यह कार्य भी पूर्ण होगा ही। क्योंकि मैंने भी तो भगवानकी प्रेरणासे ही यह सम्बन्ध पक्का किया है। इस प्रकार यह श्लोक मुख्य रूपसे नटीकी चिन्ताकी निवृत्तिके लिए नटके द्वारा कहा गया है । किन्तु वह प्रकृत नाटककी कथावस्तुको स्पर्श कर रहा है। इस नाटककी नायिका रत्नावली सिंहलेश्वरकी पुत्री है। किसी ज्योतिषीने इस नाटकके नायक राजा उदयन और उनके मन्त्री योगन्धरायणको बतलाया था कि सिंहलेश्वरकी पुत्री इस रत्नावलीके साथ जिसका विवाह होगा वह चक्रवर्ती सामाज्यको प्राप्त करेगा। इस लिए उदयनकी पोरसे योगन्धरायणने रत्नावलीका विवाह उदयनके साथ कर देनेका प्रस्ताव उसके पिता के सामने रखा। किन्तु उस समय उदयनकी रानी वासवदत्ता विद्यमान थी जो दूरके सम्बन्धमें रत्नावलीकी बहिन लगती थी। सिंहलेश्वरने यह सोचकर कि इस विवाहसे रत्नावलीकी बहिन वासवदत्ताको क्लेश होगा-उस प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया। कुछ समय बाद यौगन्धरायणने वासवदतीक मर जानेका समाचार फैला देने के बाद वही प्रस्ताव फिर सिंहलेश्वरके सामने रखा। इस बार वे सम्बन्ध करने के लिए तैयार हो गए। उस प्रसङ्ग में रत्नावली सिंहलसे भारत पा रही थी। उसका जहाज डूब गया। वह जैसे-तैसे किसी काष्ठ के सहारे बचकर उधरसे पानेवाले व्यापारियोंके द्वारा योगन्धरायणको प्राप्त हुई । यौगन्धरायणने उसे अपनी बहिन बतलाकर रक्षाके लिए राजमहल में रानी वासवदत्ताके पास कुछ दिनोंके लिए रख दिया। यह केन्या सागरसे प्राप्त हुई थी इस लिए इसका नाम भी यौगन्धरायणने 'सागरिका' रख दिया था। कन्याको वासवदत्ताने अपने पास रख तो लिया किन्तु उसके अपूर्व रूप-लावण्यको देखकर वह बड़ी सशक हो गई कि कहीं राजाकी दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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