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का० २६, सू० २६ ] प्रथमो विवेकः बिन्दुः, कार्यानुसन्धानरूपत्वात् । उपकरणभूतो द्विधा । (१) स्वार्थसिद्धियुतः परार्थसिद्धिपरः, (२) परार्थसिद्धिपरश्च । पूर्वः पताका, अन्यःप्रकरीति । अत्र चाचेतन. चेतनानां मध्ये बीजबिन्द्वोमुख्यत्वम्, सर्वव्यापित्वादिति ॥२८॥ अथ बीजमाह
सूत्र २६]-स्तोकोदिष्टः फलप्रान्तो हेतु/जं प्ररोहणात् ।
आदी गभीरत्वादल्पनिक्षिप्तो मुख्यफलावसानश्च यो हेतु मुख्यसाध्योपायः, स धान्यबीज व 'बीजभू' । 'प्ररोहणात्' उत्तरत्र शाखोपशाखादिभिविस्तरणात् । इदं च आमुखानन्तरं निबध्यते । बीजं हि नाटकादीनामितिवृत्तार्थस्योपायः। प्रामुखं तु रूपकप्रस्तावनार्थ नटस्यैव वृत्तम् । याः थुनरत्र नाटकार्थस्पृशो नटोक्तयस्ताः प्रयोगपातनिकाथेमेव । अत एव प्रामुखोक्ता अपि बीजोक्तयः प्रविष्टनाटकपाग पुनरुच्यन्ते । तथा च रत्नावल्याम्हुए] 'यथाधि' इस [पद से यह सूचित किया है कि कि प्रौद्देशिक [अर्थात जिस क्रमसे उनको यहां पढ़ा गया है उसी] क्रमसे [नाटकमें] उनका प्रयोग-क्रम [अपेक्षित नहीं है। और सब [पांचों उपायों] का अपरिहार्यत्व [अपेक्षिल] है। [अर्थात् कवि या नाटककार अपनी आवश्यकता और इच्छाके अनुसार उनमेंसे किन्हींका और किसी भी क्रमसे उपयोग कर सकता है] । 'फल' अर्थात् [नाटकके] मुख्य साध्यके 'हेतु' उपाय [कहलाते हैं। ये हेतु [उपाय] दो प्रकारके होते हैं। एक 'प्रचेतन' और दूसरे 'चेतन' । [उनमेंसे] अचेतन हेतु] भी मुख्य तथा अमुख्य भेदसे दो प्रकारका होता है। मुख्य [अचेतन हेतु] बीज' [कहलाता] है। क्योंकि अन्य सब उसके प्राश्रित होते हैं। प्रमुख्य [अचेतन हेतु) 'कार्य' कहलाता है। चेतन हेतु] भी मुख्य और उपकरणभूत दो प्रकारका होता है। मुख्य [चेतन हेतु] कार्यानुसन्धान रूप होनेसे 'बिन्दु' [कहलाता है। उपकरणभूत [चेतन हेतु भी] दो प्रकारका होता है। एफ स्वार्थसिद्धियुक्त होनेके साथ परार्थसिद्धिपर, और दूसरा [केवल परार्थसिद्धिमें तत्पर । [इनसे] पहिला अर्थात् स्वार्थसिद्धियुक्त होनेके साथ परार्थसिद्धिपर चेतन साधन 'पताका'। और [केवल परार्थसिद्धिपर] दूसरा [चेतन साधन] 'प्रकरी' कहलाता है। इनमें से भी अचेतन तथा चेतन [साधनों और उपायों मेंसे [क्रमशः] बीज और बिन्दुको [नाटक की पाख्यान-वस्तुमें] सर्वत्र व्यापक होनेसे मुख्यता है ॥२८॥
अब आगे [उपायोंमेंसे सर्वप्रथम] 'बीज' को कहते हैं
भूत्र २६]--[प्रारम्भमें] सूक्ष्मरूपसे कहा गया और [अन्तमें] फल रूपमें पर्यवसित होनेवाला मुख्य अचेतन हेतु [वृक्षके बीजके समान शाखा प्रावि रूपमें विस्तृत हो जानेसे 'बीज' [कहलाता है।
[नाटकके प्रारम्भमें, [गम्भीर दुय होनेसे सूक्ष्म रूपमें बोया और मुख्य फलमें समाप्त होनेवाला जो हेतु, मुख्य-साध्यका उपाय है वह धान्यके बीजके समान होनेसे 'बीज' [कहलाता है। कारिकामें आए हुए] 'प्ररोहणात्' [पदका अभिप्राय] 'शाखा-प्रशाखा रूपमें फैल जानेसे' यह है। [नाटकको रचनामें] प्रामुख [प्रस्तावना के बाद इस [बीज] को निबद्ध किया जाता है। बीज नाटकके इतिवृत्त [पाख्यान-वस्तु] का उपाय [होता है। [किन्तु] प्रामुख तो रूपकको प्रस्तुत करनेकेलिए नटका ही व्यापार [वृत्तम्] है। [अर्थात्
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