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________________ । ५२ ) भर्तु मेण्ठ अपनी रसवती रचना के लिए ही तो इतने प्रसिद्ध है। यदि वै मम्मट के अनुसार केवल अधम चित्रकाव्य के निर्माता होते तो क्या उन्हें इतनी प्रसिद्धि प्राप्त हो सकती है ? और क्या राजशेखर जैसे मनस्वी कवि का सिर जो कि अपने को वाल्मीकि का मवतार मानता है भर्तुमेण्ठ के सामने श्रद्धा से मुक सकता था। और क्या उस नीरस प्रथम काव्य को सुनकर ही 'प्राविद्धा इव कुन्वन्ति मूर्धानं कविकुञ्जराः' की उक्ति चरितार्थ हो सकती थी? ये सब उक्तियां भर्तु मेण्ठ की इस महती रचना की अपूर्व रसवत्ता की परिचायिका है। मम्मट ऐसे मालोचक है, जो अपनी 'दोषदृष्टि के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध या बदनाम है। अपनी इसी 'दोष दृष्टि के कारण 'हयसीव वध' में उन्हें सर्वत्र दोष ही दोष दिखलाई दिए हैं। पर राजशेसर,पपगुप्त, बिल्हण मादि अन्य कवियों एवं पालोचकों को दृष्टि में भर्तु मेण्ठ एक 'रससिः कवीश्वरः' है। ऊपर 'राजतरंगिणी' से माहगुप्त तथा भर्तृ ण्ठ की जिस कथा का उल्लेख किया गया है वह भी इसी बात की पुष्टि करती है । 'लावण्यनिर्याणधिया तषः स्वरणंभाजनम्' की बात भी तो हयग्रीषवष की अतिशय रसवत्ता को हो सूचित कर रही है। बड़ोदा से प्रकाशित 'उदय सुन्दरी कपा' में उसके निर्माता कायस्य कवि सोवा ने भी तो भत मेग्ठ की इस 'रससिद्धता की प्रशंसा करते हुए लिखा है "स कश्चिदालेल्यकरः कवित्वे प्रसिद्धनामा मुवि भ मेष्ठः । रसप्लवेऽपि . स्फुरति प्रकामं, वर्णेषु यस्योज्ज्वलता तथव ॥" इस प्रकार के बहुप्रशंसित, महुचित और बड़े बड़े कवियों के श्रद्धाभाजन भत मेण्ठ की एकमात्र कृति को प्रथम काव्य की श्रेणी में रखना और उससे रसदोषों का अनुसन्धान करना मम्मट की केवल दोषदृष्टि की विशेषता को ही प्रत्यापित करता है। मत मेण्ठ हो भब भी 'कश्चिदालेख्यकरः कवित्वे'-कविता के पूर्व चित्रकार हैं। जिनके चित्र में 'रसप्लवेऽपि रस का . प्रवाह भरा होने पर भी, और दूसरे पक्ष में पानी पड़ जाने पर भी 'स्फुरति प्रकामं वर्णेषु यस्योज्ज्वलता तथैव' वर्णो की, और दूसरे पक्ष में चित्र के रंगों की चमक वैसी ही बनी रहती है तनिक भी मलिन नहीं हो पाती है। उपसंसहार. यह ३५ नाटकों मोर काव्यों का परिचय हमने यहाँ उपस्थित किया है। इन ग्रन्यों का उल्लेख संस्कृत साहित्य के भनेकानेक ग्रन्थों में पाया जाता है। प्राज से ८०० वर्ष पूर्व १२वीं शताब्दी में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र के समय में ये अन्य उपलब्ध थे। ग्रन्थकार ने उनमें से अनेक उद्धरण स्वयं दिए हैं। परन्तु पाज तक ये ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुए है। सम्भवतः उपलब्ध भी नहीं हुए हैं । अन्यथा उनका प्रकाशन अवश्य होता। इतने सुप्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थों का इस ८०० वर्ष के बीच में सर्वथा लोप हो बाना माश्चर्य की बात है, या फिर उनकी अब तक उपलब्धि न होना हमारे प्रमाद की सूचक है । नाट्यदर्पणकार ने इन महत्त्वपूर्ण प्रन्पों का नाम मोर परिचय हमको दिया, इसके लिए हम उनके कृतज्ञ है। अब इनकी सोष करना मोर उनके प्रकाशन की व्यवस्था करना हमारा काम है। पाशा है विद्वज्जन इस दिशा में विशेष रूप से प्रवल करेंगे ताकि उनकी उपलब्धि सर्वसाधारण को हो सके। विस्पर सिवान्तशिरोमणि बसन्त पञ्चमी, सं० २०१७ प्राचार्य जनवरी १९९१ गुरुकुम मिश्वविद्यासप वृन्दावन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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