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__ यह श्लोक टीकाकारों के अनुसार भतमेण्ड के 'हक वर्ष' से लिया गया है। श्लोक में कवि ने यह भाव प्रस्तुत किया है कि जिस समय हयग्री प्रसाद से केवल घूमने के लिए ही निकलता था और उसका समाचार यदि इन्द्र को पता जाता था तो इन्द्र इतना भयभीत हो उठता था कि सैकड़ों नौकर-चाकरों के होते हुए भी भाग र अपनी 'नगरी अमरावती का फाटक बन्द कर देता था, और उस फाटक के बाद होने पर कति यह उत्प्रेक्षा करता है कि मानो हयग्रीव के डर के कारण अमरावती नायिका ने मानी पाखें मीच ली है।
हयग्रीव के प्रभावातिशय का वर्णन ऋषि ने कितने सुन्दर ढंग से किया है। नगरी का द्वार बन्द करने के लिए इन्द्र की उतावली, और मनरावती के भय से मोख मीचने की उत्प्रेक्षा, इस पद्य में कुछ चमत्कार दिखला रही है। पर का प्रकाशकार ने स्से मधम काव्य की कोटि में रखा है।
जैसा कि ऊपर पुष्ट ५० पर उद्धृत शृङ्गारप्रकाश के उद्धरण से विदित होता है कि 'हयग्रीवाय' में महादेव के ऐतिहासिक चरित का वर्णन किया गया है. हयग्रीव इसमें प्रतिनायक है । शिशुपालवध' आदि के समान इस काव्य का नामकरण भी नायक नहीं अपितु प्रविनायक के नाम पर हुमा है। इसके नायक महादेव है। उनके द्वारा इयग्रीव का वध इसमें दिखलाया गया है। किन्तु उसके वध के पूर्व हयग्रीव के प्रतापातिशय का वर्णन बहुत विस्तार के साथ किया गया है। इसलिए काव्यप्रकाशकार ने रसदोषों के प्रसङ्ग में 'अङ्गस्याप्यतिविस्तृतिः' दोष के उदाहरण रूप में फिर 'हयग्रीववष' का ही उल्लेख किया है। "अङ्गस्याऽप्रधानस्यातिविस्तरेण वर्णनं यथा हयग्रीववधे हयग्रीवस्य ।"
काव्यप्रकाश, ज्ञानमण्डल सं० पृ० ३६२] इन सब उल्लेखों से प्रतीत होता है कि काव्यप्रकाश मम्मट की दृष्टि में हयग्रीववध एक नितान्त निम्न श्रेणी की कृति है। हमारे प्रस्तुत नाटघ दर्पणकार राम चन्द्र-गुरणचन्द्र मम्मट के इस विचार से सहमत नहीं है । मम्मट ने हयग्रीव के जिस अतिशय वर्णन को रस दोष माना है, रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने उसे दोष न मान कर रस का उत्कर्षाधायक गुण माना है। उनके मत में हयग्रीव के अतिशय वर्णन को यदि दोष ही कहा जाय तो वह 'वृत्त-दोष' मथति कथा का दोष हो सकता है, रस का दोष नहीं। रस की दृष्टि में तो वह वर्णन वीररस का उत्कर्षाधायक ही है अपकर्षकारक नहीं। इसी प्रसङ्ग में 'नाटयदर्पण' में केवल एक वार हयग्रीववध का उल्लेख नाट्यदर्पणकार ने किया है । मम्मट ने जिसे 'भङ्गस्याप्यतिविस्तृति' दोष कहा है उसे माट्यदर्पणकार ने 'मनोग्य' नाम से निर्दिष्ट किया है । इसके उदाहरण रूप में उन्होंने 'कृत्यारावण' से जटायुवध, लक्ष्मण-शक्तिभेद, सीताविपत्ति-श्रवण आदि से उत्पन्न वार-वार वणित करुण रस के अतिशय को प्रस्तुत किया है, और उसके बाद काव्यप्रकाशकार के मत का खण्डन करते हुए उन्होंने लिखा है
__ "केचिदत्र हयग्रीववधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति । से पुनर्वसदोषो वृत्सनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः, स विशेषतो वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयवर्णनेन भूष्यते ।"
नाट्यदर्पण ३-२३] अर्थात् [काव्यप्रकाश कारकादि] कुछ लोग 'हयग्नीववध' में हयग्रीव के वर्णन को इस 'प्रोग्य' के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते है, किन्तु वह वृत्त-अर्थात् कथा भाग का दोष है, क्योंकि कथा के नायक का वर्णन उसमें कम किया गया है। वह रस का दोष नहीं है । क्योंकि उस 'हयग्रीववध' का मुख्य रस वीर रस है, और वध्य के शौर्य, वीर्य, विभूति मादि के भतिशय वर्णन से उस मुख्य बीर रस का उत्कर्षाधान ही होता है, अपकर्ष नहीं । इसलिए हयग्रीव का प्रतिशय वर्णन रस दोष नहीं कहा जा सकता है! यह नाट्यपंणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र की सम्मति है।
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