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अथ तृतीयो विवेकः अथ रूपकोद्देशश्नोकोद्दिष्टाः क्रमप्राप्ता वृत्तयः प्रपच्यन्ते[सूत्र १५५]-भारती सात्वती कैशिक्यारभटी च वृत्तयः ।
रस-भावाभिनयगाश्चतस्रो नाट्यमातरः ॥[१]१०३॥ पुरुषार्थसाधको विचित्रो व्यापारो वृत्तिः। रस-भावाभिनया वक्ष्यमाणाः । तांस्तन्मयत्वेन गच्छन्ति । रस-भावाभिनयसम्भिन्नो हि सर्वो नाट्ये व्यापारः । 'चतस्र' इति चतुर्भेदत्वमन्यतमचेष्टांशप्राधान्यविवक्षया, अपरथाऽनेकव्यापारसंवलितमेकमेव वृत्तितत्त्वम् । न नाम प्रबन्धेषु व्यापारान्तरासंवलितः कोऽप्येकाकी कायिको वाचिको मानसो वा व्यापारो लक्ष्यते। कायिक्यो हि व्यापृतयो. मानसैर्वाचिकैश्च व्यापारैः सम्भिद्यन्ते । शब्दोल्लिखितं मनःप्रत्ययं विना रञ्जकस्थ कायव्यापारपरिस्पन्दस्याभावात् । वाचिक्यो मानस्यश्च कायपरिन्पन्दाविनाभाविन्य एव । ताल्वादिव्यापाराभावे
अथ नाट्यदर्पणदीपिकायां तृतीयो विवेकः वृत्तिनिरूपण
[प्रथम द्वितीय विवेकमें रूपकके समस्त भेदोंके लक्षण प्रादि कर चुकनेके बाद अब रूपकोंका उद्देश [अर्थात् नाम-परिगणन करानेवाले [अर्थात् ३.४] श्लोकोंमें ['सर्ववृत्तयः' तथा 'त्रिवृत्तयः शब्दोंके प्रयोग द्वारा कही हुई वृत्तियों [की व्याख्या] का अवसर प्रास होनेसे वृत्तियोंका निरूपण [प्रारम्भ करते हैं।
[सूत्र १५५]-रस, भाव, अभिनय विषयक भारती, सात्वती, कैशिकी और पारभती चार प्रकारको वृत्तियां नान्यकी माता के सदृश होती हैं। [१] १०३।।
पुरुषार्थके साधक नाना प्रकारके व्यापारको 'वृत्ति' कहते हैं। रस, भाव और अभि. नय का लक्षणादि] आगे कहेंगे। [भारती प्रादि वृत्तियाँ] तन्मय अर्थात् रसभावादिमय होनेसे उनका अनुगमन करती है इसलिए इस कारिकामें उनके विशेषणके रूपमें 'रसभावाभिनयगाः' इस विशेषणपदका प्रयोग किया गया है। इसका यह अभिप्राय है कि नाट्यमें सारा ही व्यापार रस, भाव और अभिनयसे युक्त होता है । [कारिकामें पाए हुए] 'चतस्त्रः' इस पदसे कहा हुआ चतुर्भेदत्व किसी एक व्यापारांशको प्रधानताको विवक्षासे कहा गया है अन्यथा [वास्तवमें तो] अनेक व्यापारोंसे मिला हुमा वृत्ति-तत्त्व [अर्थात् व्यापार] एक ही होता है । क्योंकि नाटकादि [रूप प्रबन्धों] में [कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंमेंसे] कोई भी व्यापार अन्य च्यापारोंके योगके बिना नहीं होता है। कायिक व्यापार मानसिक तथा वाचिक व्यापारोंसे मिश्रित होते हैं। क्योंकि शब्द द्वारा निर्दिष्ट मानसिक ज्ञानके बिना कोई सुन्दर कायिक व्यापार सम्भव नहीं है और मानसिक तथा वाचिक व्यापार तो काधिक व्यापारके बिना हो ही नहीं सकते हैं। क्योंकि तालु आदिके व्यापारके बिना शब्दका
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