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________________ २७४ ] नाट्यदर्पणम [ का० १०३, सू० १५५ वचनानुच्चारणात्, प्राणादिरूपकायपरिस्पन्दाभावे मनोव्यामृत्यनुपलक्षणाच्च । मनःशून्यश्च व्यापारः कायिको वाचिको वाऽरञ्जकत्वादनिबन्धनीय एव । विदूषकोऽपि हास्या) बुद्धिपूर्वकमेव विसंस्थुलं विचेष्टते । अतः संकीर्णत्वेऽपि अंशप्राधान्यापेक्षया वृत्तयश्चतस्रः। नाट्यस्य अभिनेयकाव्यस्य मातर इव मातरः । आभ्यो हि वर्णनीयत्वेन कविहृदये व्यवस्थिताभ्यः काव्यमुत्पद्यते । 'नाट्य' इति च प्रस्तावापेक्षम् । तेनानभिनेयेऽपि काव्ये वृत्तयो भवन्त्येव । न हि व्यापारशून्यं किञ्चिद्वर्णनीयमस्ति । रङ्गानन्तरं च नाट्यमिति रङ्गस्य व्यापारशून्यत्वेनावृत्तित्वेऽपि न कश्चिद् दोषः । मुर्छादौ तु व्यापाराभावेन वृत्त्यभावेऽपि न नाट्यस्य वृत्तिमयत्वहानिः । बाहुल्यापेक्षया वृत्तिमयत्वग्याभिमतत्वादिति ।। [१] १०३ ।।। उच्चारण नहीं हो सकता है । और प्राणादि रूप कायिक व्यापारके प्रभावमें मनोव्यापारोंका भी परिज्ञान नहीं हो सकता है। [इसलिए मानसिक तथा वाचिक व्यापार दोनों कायिक व्यापारके साथ मिश्रित होते हैं। अकेले नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार मनोव्यापारसे रहित कायिक या वाचिक व्यापार नीरस [अरञ्जक] होनेसे [नाटकादिमें] वर्णन करनेके योग्य नहीं होता है। विदूषक भी हास्यके लिए बुद्धिपूर्वक हो अटपटी चेष्टाएँ करता है । इसलिए [कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार रूप भारती आदि चारों वृत्तियोंके परस्पर संकीर्ण होनेपर भी [उस-उस] अंशकी प्रधानताको दृष्टिसे चार प्रकारको वृत्तियाँ [कही गई हैं। [मागे कारिकामें आए हुए 'नाट्यमातरः' पदका अर्थ करते हैं] नाव्यको अर्थात् अभिनेय काव्यको माताके समान [जननी) होनेसे [वृत्तियां नाव्यको] माता [कहलाती है। क्योंकि कविके हृदय में वर्णनीय रूपसे स्थित [कायिक-वाचिक-मानसिक व्यापार रूप] इन [भारती प्रादि चारों वृत्तियों से ही काव्यको उत्पत्ति होती है [अर्थात् कवि अपने काव्यमें कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंका ही वर्णन करता है। वह विविध व्यापार ही काव्यका जनक होता है, और भारती आदि वृत्तियां कायिक. वादिक, मानसिक व्यापार रूप ही हैं। इसलिए काव्यको जननी होनेसे उनको काव्यको माता कहा गया है। 'नाध्यमातरः' इसमें] 'नाट्य' यह पद प्रकरण की दृष्टिसे पाया है। [अर्थात् इस समय नाटकका निरूपण किया जा रहा है इसलिए यहां 'नाट्यमातरः' कहा गया है। वैसे ये वत्तियां केवल नाव्य अर्थात् अभिनेय काव्यको ही नहीं अपितु अनभिनेय श्रव्य काव्यको भी माता हैं । क्योंकि श्रव्यकाव्योंमें भी कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंका ही वर्णन होता है, इसलिए अनभिनेय [अर्थात् श्रव्य] काव्यमें भी [भारती प्रादि] वृत्तियां होती ही हैं। क्योंकि व्यापाररहित किसी अर्थका वर्णन नहीं होता है। मुख्य नाटकका प्रारम्भ पूर्व [नान्दीपाठ प्रादि रूप] पूर्वरङ्गके बाद होता है इसलिए पूर्वरङ्गके [नाट्यमें वर्णनीय व्यापारोंसे रहित होने पर भी कोई दोष नहीं है क्योंकि वह पूर्वरङ्ग वाला भाग वास्तवमें नाटकका अंश नहीं है। इसी प्रकार मुख्य नाटकके बीच में प्राने वाले मूर्छा प्रादि [क प्रसंगों में व्यापारादि न होने से वृत्तियोंका प्रभाव होनेपर भी नाट्यके वृत्तिमयत्वकी हानि नहीं होती है। क्योंकि [वृत्तियों के] बाहुल्यको दृष्टिसे वृत्तिमयत्वका कथन किया गया होनेसे [कहीं थोड़ेसे भागमें व्यापारशून्यता होनेसे कोई हानि नहीं होती है। मूर्खादि प्रसंगोंमें वृत्त्यभाव होनेपर भी नाव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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