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________________ का० १०४, सू० १५६ ] तृतीयो विवेकः [ २७५ अथ भारत्या लक्षणमाह[सूत्र १५६]-सर्वरूपकगामिन्यामुख-प्ररोचनोत्थिता। प्रायःसंस्कृतनिःशेषरसाढया वाचि भारती ॥[२]१०४॥ सर्वरूपकेषु अभिनेयानभिनेयेषु गमनशीला प्रायस्तन्मयत्वाद् वर्णनायाः । आमुखप्ररोचनयोरुत्थितः सम्भवो यतः । प्रायो बाहुल्येन संस्कृतेन सर्वरसैश्च दीप्ताः । वृत्तिमय ही माना जाता है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है] ॥ [१] १०३ ॥ (१) भारतीवृत्तिका निरूपण इस प्रकार पिछली कारिकामें वृत्तियोंका सामान्य लक्षण करने के बाद अब आगे भारती आदि चारों वृत्तियों में से एक-एक वृत्तिका लक्षण करेंगे। पिछली कारिकामें यह कहा था कि चारों वृत्तियां कायिक, वाचिक तथा मानसिक व्यापार-रूप हैं इसी दृष्टि से आगे इन चारोंके लक्षण करेंगे। इस इनमें से भारती वृत्ति वाचिक व्यापार-रूप और सात्वती वृत्ति मानसिक व्यापार रूप होती है। शेष कैशिकी तथा प्रारभटी दोनों वृत्तियां कायिक व्यापाररूप होती है। काव्य और नाट्य में वाचिक व्यापार की प्रधानता होनेके कारण सबसे पहले वाचिक-व्यापार रूप भारती-वृत्तिका लक्षण निम्न प्रकार करते हैं। अब भारती [वृत्ति का लक्षण कहते हैं ---- [सूत्र १५६]-समस्त रुपकोंमें रहने वाली, प्रामुख तथा प्ररोचनासे उस्थित [अर्थात् नाट्य के प्रारम्भिक भागों में विशेष रूपसे उपस्थित] सम्पूरणं रसोंसे परिपूर्ण, तथा प्रायः संस्कृत [भाषा का अवलम्बन करने वाली, वाग्व्यापार-प्रधान वृत्ति 'भारती' [वृत्ति कहलाती] है । [२] १०४ [कारिकामें पाए हुए 'सर्वरूपकगामिनी' पदका अभिप्राय यह है कि यह भारती वृत्ति अमिनेय पौर अंनभिनेय [अर्थात् दृश्य-काव्य और श्रव्य-काव्य] सब रूपकोंमें जाने वाली [सब प्रकारके काव्योंमें विद्यमान रहने वाली है। क्योंकि सारा वर्णन प्रायः उससे युक्त [भारतीवृत्तिमय होता है। ['प्रामुख-प्ररोचनोस्थिता' का अर्थ करते हैं कि प्रामुख तथा प्ररोचना [रूप काव्य या नाट्य भागों का उदय जिससे होता है । [शमुख और प्ररोचना किसको कहते हैं यह प्रश्न यहाँ उपस्थित होता है। इसका लक्षण प्रगली दो कारिकामों में करेंगे] । प्रायः अर्थात् अधिकतर संस्कृत भाषा और सब रसोंसे युक्त [भारती दृत्ति होती है । भारतीवृत्तिके इस लक्षण में मुख्यरूपसे प्रामुख तथा प्ररोचना भागों में भारतीवृत्ति का निर्देश किया गया है और उसको प्राय: संस्कृतभाषा तथा सब रसोंसे युक्त कहा गया है । यहाँ 'प्रायः' शब्दका जो प्रयोग किया गया है उसकी ग्रन्थकार यह व्याख्या करते हैं कि यद्यपि भारतीवृत्तिका मुख्य-स्थान प्रामुख तथा प्ररोचना भागोंको माना गया है किन्तु इनसे भिन्न स्थानोंपर भी इसका स्थान पाया जाता है। इसी प्रकार मुख्य रूपसे भारतीवृत्ति में संस्कृतभापाका ही प्रयोग होता है किन्तु वह एकदम अनिवार्य नहीं है। कभी-कभी संस्कृतसे भिन्न प्राकृतभाषाका भी भारतीवृत्तिमें अवलम्बन किया जा सकता है। इसी बातको ग्रन्थकार अगली पंक्ति में निम्न प्रकार कहते हैं .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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