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नाट्यदर्पणम् [ का० १०४, सू० १५६ प्ररोचना-प्रामुखयोरन्यत्रापि च रूपकैकदेशे प्राकृतादिपाठेन भारतीदर्शनात् प्रायोग्रहणं अर्थवत् । सर्वरूपकभावित्वादु रसानां च वाग्जन्यत्वाद् सर्वरसात्मकत्वम् । ये तु भारत्यां बीभत्स-करुणौ प्रपन्नास्तैः सर्वरसप्रधानवीथी-शृङ्गारवीरप्रधानभाणहास्यप्रधानप्रहसनानि स्वयमेव भारत्यामेव वृत्तौ नियन्त्रितानि नावेक्षितानि ।
'प्ररोचना' और 'प्रामुख' [भागों से अन्यत्र भी रूपोंके किसी एकवेशमें [भारती वृसिके देखेजानेसे] और [संस्कृतभाषाको छोड़ कर] प्रकृत प्रादि [भाषा] के पाठसे भी भारतीवृत्तिके देखे जानेसे [कारिकामें किया गया] 'प्रायः' शम्बका ग्रहण सार्थक है। रसोंके सब रूपकोंमें व्यापक होने और वाणी द्वारा व्यक्त होनेसे [वाग्व्यापारप्रधाना भारती वृत्ति] सर्वरसात्मक होती है । जो [दशरूपककार धनञ्जय] भारतीवृत्तिमें [सब रस न मान कर] केवल बीभत्स और करुण रस मानते हैं उन्होंने स्वयं अपने आप ही भारतीवृत्तिमें नियन्त्रित सर्वरसप्रधान [वीथो] शृङ्गार और वीररस प्रधान [भारण], तथा हास्यरस-प्रधान [प्रहसन क्रमशः] वीथी भाण तथा प्रहसनों की ओर ध्यान नहीं दिया है [इसीलिए वे भारतीवृत्तिमें केवल बीभत्स और करुणरसको ही मानते हैं। किन्तु उनका यह सिद्धान्त ठीक नहीं है।
इसका अभिप्राय यह है कि धनञ्जय जो केवल बीभत्स तथा करुणरसमें भारतीवृत्तिका प्रयोग मानते हैं उन्होंने भी 'बीथो', भारण तथा प्रहसनके लक्षणों में भारतीवृत्ति का समावेश माना है। सूत्र १४० में 'वीथी' का लक्षण करते हुए 'सर्वस्वामिरसा वोथीत लिखकर प्रकृत ग्रन्थकारने वीथी में समस्त रसोंके रखनेका विधान किया है । १४१ वे सूत्र में बीथोके तेरह अंगोंका वर्णन करते हुए फिर 'भारतीवृत्तिवर्तीनि वीभ्यंगनि त्रयोदश' लिखकर वीथीमें 'भारती' वृत्तिका समावेश किया है। इस प्रकार वीथीमें समस्त रसोंके साथ भारतीवृत्तिका प्रयोग माना जाता है। इसके अतिरिक्त ११६वें सूत्रमें 'भाण-प्रधानभृङ्गार-वीरौं' लिखकर भाणमें शृङ्गार तथा वीररसको प्रधानताका प्रतिपादन किया गया है। और उसके साथ ही १३०वें सूत्र में 'वृत्ति मुख्या च भारती' लिखकर भागमें भारतीवृत्तिको मुख्यता प्रतिपादन की है। इसलिए वीर तथा शृङ्गारके साथ भारतीवृत्तिका सम्बन्ध भारणके लक्षण में प्रतिपादन किया है। फिर सूत्र १३१ वें 'हास्याङ्गि भाणसध्यङ्गवृत्ति प्रहसनं द्विधा' इस प्रहसनके लक्षणमें हास्यरसको प्रहसनका प्रधानरस तथा भागके समान सन्धि, अंक तथा वृत्तियोंका प्रतिपादन कर प्रहसनमें भी भारतीवृत्तिको प्रधानता निर्दिष्टकी है। इसलिए हास्यरसके साथ भी भारतीवृत्तिका समावेश पाया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीवृत्तिका सम्बन्ध प्रहसनके लक्षणके अनुसार हास्यरसके साथ, भाणके लक्षणके अनुसार वीर और शृङ्गार रसोंके साथ, और वीथीके लक्षणके अनुसार सभी रसोंके साथ होता है। वीथी, भारण और प्रहसनके ये लक्षण सर्वसम्मत लक्षण हैं। जो दशरूपककार धनञ्जय प्रादि भारतीवृत्तिका सम्बन्ध केवल बीभत्स और करुण रससे बतलाते हैं, वे भी वीथी भारण और प्रहसनके इसी प्रकारके लक्षण करते हैं । इन लक्षणों के अनुसार उन्होंने भी वीथी, भाण तथा प्रहसनोंको भारती वृत्तिमें नियन्त्रित कर दिया है। फिर भी वे भारतीवृत्तिका सम्बन्ध केवल बीभत्स और करुण रससे बतलाते हैं। यह बात उनके अपनेही कथनके विपरीत हो जाती है । इसी बातको ग्रन्थकारने यहां 'तैः' वीथी, भारण, प्रहसनानि स्वयमेव भारत्या वृत्ती नियन्त्रितानि नावेक्षितानि' इस रूपमें लिखा है।
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