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का० १०४, सू० १५७ ] तृतीयो विवेकः ।
[ २७७ _ 'वाचि' वाग्व्यापारविषये वाग्व्यापारात्मिकेत्यर्थः। भारती वाग्व्यापारविषय एवेत्ययोगव्यवच्छेदः। तेन वाचिकाभिनयात्मिका सात्त्वत्यपि भवति । वृत्त्यन्तराणि तु सर्वथाभिनयविषयाणि । भारतीरूपत्वाद् व्यापारस्य भारतीति ।। [२] १८४ ।। अथ भारतीसम्भवमामुखं लक्षयति-, [सूत्र १५७] -विदूषक-नटी-मार्फः प्रस्तुताक्षेपि भाषरणम् ।
सूत्रधारस्य वक्रोक्त-स्पष्टोक्तैर्यत् तदामुखम् ॥[३]१०५॥ पारिपाश्विक एव विदूषकवेषधारी विदूषकः।
इस स्थलका पाठ कुछ अस्पष्टसा है। पूर्व संस्करणोंमें 'सर्ववीथीप्रधानशृङ्गारवीर भागप्रधानहास्यप्रहसनानि' इस प्रकारका पाठ छपा था। उसकी कोई सङ्गति नहीं लगती है। इसमें 'सर्वरसप्रधानवीथी-भृङ्गारबीरप्रधानभाण-हास्यप्रधानप्रहसनानि' इस प्रकार पाठ होना चाहिए था, अतः हमने यही पाठ मूल में दिया है। ___. 'वाचि' अर्थात् वाग्व्यापारके विषयमे होने वाली अर्थात् वाग्व्यापारात्मक वृत्ति 'भारती' ही होती है। भारती वाग्व्यापारके विषयमें ही होती है यह प्रयोग-व्यवच्छेद [का नियम है। [इसका अभिप्राय यह है कि भारती वृत्ति वाग्व्यापारके विषयमें ही होती है। अन्यत्र नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल भारती वृत्ति ही वाग्व्यापार-विषयक होती है, अन्य वृत्तियोंका वाग्व्यापारसे सम्बन्ध नहीं हो सकता है। इसलिए सात्त्वती वृत्ति भी वाग्व्यापारात्मिका होती है। भारती तथा सास्वती वृत्तिको छोड़कर] अन्य वृत्तियाँ तो सर्वथा [कायिक] अभिनय रूप ही होती हैं। [भारतीवृत्तिमें] व्यापारके [पूर्णतया] भारती रूप [अर्थात् वाचिकरूप] होनेसे [इस वृत्तिका नाम] 'भारती' [रखा गया है।
इस कारिकाकी व्याख्यामें 'भारती वाग्व्यापारविषय एव इत्ययोगव्यवच्छेदः' यह वाक्य आया है । इसे विशेष रूपसे समझने की आवश्यकता है। 'एव' पदके प्रयोग-व्यवच्छेद, अन्ययोग-व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग-व्यवच्छेद ये तीन अर्थ माने गए हैं । 'पार्थ एव धनुर्धरः' प्रांदि वाक्योंमें जब एव' पद विशेष्यके साथ संगत होता है तब वह 'विशेष्यसंगतस्त्वेवकार अन्ययोगव्यवच्छेदकः' इस नियम के अनुसार अन्ययोगका व्यवच्छेदक होता है । 'पार्थ एव धनुर्धरः नान्यः' यह उसका अर्थ होता है । इसके विपरीत जब 'पार्थो धनुर्धर एव' इस रूपमें उसका सम्बन्ध विशेषण के साथ होता है तो 'विशेषगसंगतस्त्वेवकारो अयोग-व्यवच्छेदकः' इस नियमके अनुसार उसका अर्थ प्रयोग-व्यवच्छेद होता है । अर्थात् पार्थ में धनुर्धरत्व अवश्य है। उसमें धनुर्धरत्वका अयोग-प्रभाव नहीं है। इसी प्रकार यहाँ 'भारती वाग्व्यापारविषय एव' में विशेषणके साथ संगत होनेसे एवकार अयोग-व्यवच्छेदक है । [२] १०४ ।। भारती वृत्तिसे सम्बद्ध आमुखका लक्षण
अब भारती [ वृत्ति ] निर्मित [अथवा भारती वृत्तिके निर्माता ] प्रामुखका लक्षण करते हैं
[सूत्र १५७]-सूत्रधारका विदूषक, नटी अथवा पारिपाश्विक के साथ स्पष्ट रूपसे अथवा वक्र मार्गसे, प्रस्तुत [अर्थात नायकादि मुख्यपात्रके प्रवेश का सम्पादन करनेवाला जो वार्तालाप होता है वह 'प्रामुख' [कहलाता है ॥[३]१०५॥
[ नटका मुख्य सहायक ] पारिपाश्विक ही विदूषकका वेष धारण कर लेनेसे यहाँ
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