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________________ २७८ ] नाट्यदर्पणम । का० १०५, सू० १५७ मार्पः पारिपाश्विकः । विदूषक-नटी-मार्थैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा सह सूत्रधारग्य रङ्गसूत्रणाकतुः, सूत्रधारगुणानुकारस्य वा नाटयस्थापनाकर्तुः स्थापकरय, प्रस्तुतस्य काव्यार्थस्याक्षेपि उपस्थापकं भाषणं वक्रोक्तैः साक्षाद् विवक्षितार्थस्याप्रतिपादकैः, स्पष्टोक्तैः साक्षाद् विवक्षितार्थस्य प्रतिपादकैश्च यत् स्वस्याभिप्रायोत्कीर्तनं तदामुखम् । "पाङ मर्यादायाम्' तेन मुखसन्धिं प्राप्य निवर्तते । 'ईषदर्थे वा' तत ईषन्मुखं मुखसन्धिसूचकत्वादारम्भः । प्रस्तावनाशब्दे नाप्येतदुच्यते । इदं तावदामुखं नाट यात् पृथग्भूतम् । तत्र कदाचित् रङ्गसूत्रयितैव श्रामुखार्थमनुतिष्ठति, तथा च दृश्यते--'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' । 'नान्द्यन्ते' इत्यवयवे समुदायोपविदूषक कहा गया है । [वैसे नायक राजा प्रादिका सहायक विदूषक होता है उस विदूषकका यहाँ ग्रहण नहीं समझना चाहिए। अपितु सूत्रधारका सहायक, जो पारिपाश्विक भी कहलाता है वही नाटकादिके प्रारम्भमें मुख्यपात्रका रङ्गमञ्चपर प्रवेश करानेके लिए विदूषकका धेष धारण करके सूत्रधार के साथ वार्तालाप करता है। उसी पारिपाश्विककेलिए यहाँ विदूषक शब्दका प्रयोग हुपा है यह ग्रंथकारका अभिप्राय है। मार्षका अर्थ भी] पारिपाश्विक [अर्थात सूत्रधार या नटका मुख्य सहायक है। [यहां पारिपाश्विक अपने मुख्य रूपमें अभिप्रेत है। पहिले उसीको विदूषक रूपमें उपस्थिति बतलाई थो] विदूषक, नटी और पारिपाश्विकोंके. साथ अलग-अलग अथवा एक साथ सूत्रधार अर्थात् रङ्गकी प्रायोजना करनेवाले [प्रधाननट] का, अथवा नाव्यार्थकी स्थापना करने वाले और सूत्रधारके गुणों का अनुकरण करने वाले [किन्तु सूत्रधारसे भिन्न] 'स्थापक'का प्रस्तुत काव्यार्थको उपस्थित करानेवाला जो भाषरण, वकोक्तियोंसे अर्थात् साक्षात् रूपसे विवक्षित अर्थका प्रतिपादन न करनेवाले [वचनोसे], अथवा स्पष्टोक्तियोंसे अर्थात् साक्षात रूपसे विवक्षित अर्थका प्रतिपादन करने वाले वाक्यों से जो [भाषण अर्थात अपने अभिप्रायका कथन करता है वह 'प्रामुख' कहलाता है। [प्रामुख शब्दमें प्राङ् उपसर्ग है। उसके दो अर्थ होते हैं : एक मर्यादा और दूसरा अभिविधि । ये दोनों शब्द सीमा अर्थके वाचक हैं। उनमें भेद यह है कि जो सीमा बतलाई जाती है वह यदि सीमित होने वाले भागके अन्दर ही समाविष्ट होती है तो उसे 'अभिविधि' कहते हैं । और यदि उस तक हो, अर्थात् उसको बाहर छोड़कर उसके पहिले-पहिले सीमा मानी जाती है तो उसको 'मर्यादा' कहते हैं । जैसे यहाँ प्रामुखको सीमा मुखसन्धि पर्यन्त कही है। उसमें मुखसन्धिको भी प्रामुखके भीतर माना जाय तो आङ अभिविध्यर्थक और यदि मुखसन्धिको प्रामुखसे अलग रखना अभिप्रेत है तो 'प्राङ' का अर्थ मर्यादा होगा । यहाँ प्राङ् मर्यादा अर्थमें है इसलिए [ प्रामुख ] मुखसन्धि तक पहुँचकर [अर्थात् मुखसन्धिसे प्रारम्भ होनेसे पहिले] समाप्त हो जाता है । अथवा [यहाँ प्राङ] 'ईषत्' अर्थ में है इसलिए ईषन्मुख [अर्थात् छोटा मुख अर्थात् ] मुखसन्धिका सूचक होनेसे प्रारम्भ [ प्रामुख कहलाता है ] । इसीको 'प्रस्तावना' नामसे भी कहा जाता है। यह प्रामुख [मुख्य नाटबसे अलग होता है [मुख्य नाटकका भाग नहीं होता है । उसमें कभी [रङ्गसूत्रयिता अर्थात् सूत्रधार हो स्वयं प्रामुखमें किए जाने वाले [वार्तालाप प्रादि रूप] कार्यको करता है। जैसा कि [भास प्रादिके नाटकोंके प्रारम्भमें] 'नान्दीके अन्तमें सूत्रधार' [प्रविष्ट होकर प्रामुखका प्रारम्भ करता है यह लिखा हुआ दिखलाई देता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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