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________________ मङ्गोमूत रस, माव पारिको इन्ही मामों से ही अपिहित किया। हां, मङ्गभूत रस, भौर भाव को इन्होंने कामः रसप पौर प्रेयस्वद् अलंकार नाम दिया, रसमास तथा भावाभास को ऊर्जस्वी अलंकार और भावशान्ति को समाहित अलंकार । इसके अतिरिक्त भावोदय मादि तीनों को मजरूप में परिणत होने पर इन्हीं नामों के ही मलंकारों से अभिहित किया गया । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि रसवद् मलंकारों को अनुप्रास तथा उपमा मादि के समान चित्रकाव्य का अंग न मानकर पुरणीभूतम्बाप के 'पपरस्याङ्ग नामक भेद का अंग स्वीकार करके मम्मट ने प्रकारान्तर से वह भी संकेत किया कि ये भलंकार अनुप्रास, उपमा पादि प्रलंकारों को प्रपेक्षा उच्च भाव-भूमि पर अवस्थित है क्योंकि इनमें वाच्याथं की अपेक्षा व्यङ्गपार्थ भले ही गौण हो, किन्तु अनुप्रास, उपमा भादि के समान इनमें वाच्यार्य की अपेक्षा व्यङ्गपार्थ की प्रस्फुटता नहीं होती। रसवादी भाचार्यों का प्रकार के प्रति यही इष्टिकोण है, मोर इसी के ही प्राधार पर रामचन्द्रगुणचन्द्र की उक्त कथन में प्रकारान्तर से स्वीकृति है कि रस ही काव्य का अनिवार्य धर्म है, भसंकार नहीं। प्रब रामचन्द्र-गुणचन्द्र की दूसरी धारणा को लें कि प्रलंकार का अनुचित प्रयोग रसास्वाद में बाधक बनता है। दूसरे शब्दों में, प्रकार का मौचित्यपूर्ण प्रयोग ही रस का उत्कर्ष कर सकता है, पनौचित्यपूर्ण प्रयोग नहीं । इस सम्बन्ध में वामन, भोजराज और क्षेमेन्द्र के निम्नोत कवन अवलोकनीय है : प्राभूषणों के प्रादर्श-प्रयोग के लिए केवम ऐसा शरीर ही अधिकारी है जो हर प्रकार से सुपात्र हो। इस दृष्टि से न तो अचेतन शव अलंकारों का अधिकारी है, न किसी यति का शरीर पौर न किसी नारी का यौवनवन्ध्य वपु ।'घर सजीव, स्वस्थ, सुन्दर शरीर पर भी माभूषणों का प्रयोग मौचित्य की अपेक्षा रखता है-मंजन की कालिमा बड़ी बड़ी मांखों में ही शोभित होती है भन्यत्र नहीं, मुक्ताहार उन्नत पीन पयोषरों पर सुशोभित होते हैं अन्यत्र नहीं दीर्घापांगं नयनयुगलं भूषयत्यजनधीः तुङ्गाभोगी प्रभवति कुचावचितं हारयष्टिः । १००भ० १३१६० किन्तु इसके विपरीत कण्ठ में मेखला का, नितम्बफलक पर सुन्दर हार का, हाथों में नूपुरों का, परणों में केयूरों का प्रवधारण कितना कुरूप, मदा और हास्यप्रद बनेगा यह कहने की मावश्यकता १. (क) तथा हि प्रचेतनं शवशरीरं कुण्डलायुपेतमपि न भाति, अलंकारयाभावात् । यतिशरीरं कटकादियुक्त हास्यावहं भवति, प्रलंकारस्य अनौचित्यात् । (स) वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः । का० सू० वृ० ३३११२ (पत्ति) २. कण्ठे लेखलया नितम्भफलके तारेण हारेण वा। पाणी नूपुरबन्धनेन धरणे केयूरपाशेन वा॥ शौर्य प्रगते रिपो कवरणया, नायान्ति के हास्यतां, पोधित विना वधि प्रतन्ते, नालंकृतिर्नोगुणाः ।। च०, पृष्ठ १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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