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________________ का० ३५, सू० ३६ ] प्रथमो विवेकः (२) अथ प्रयत्नमाह [मूत्र ३६] -प्रयत्नो व्यापृतौ त्वरा । मुख्यफलोपायव्यापारणे त्वरा, अनेनोपायेन विना फलं न भवतीति निश्चयेन परमोत्सुक्य, प्रकर्षेण यत्नः प्रयत्नः । औत्सुक्यमात्रमारम्भः, परमोत्सुक्यं तु प्रयत्न इत्यर्थः। यथा रत्नावल्याम्-- "तहा वि नस्थि अन्नो दसणोवाउ त्ति जहा तहा आलिहिय जधासमीहिदं करइस्सं। [तथापि नास्त्यन्यो दर्शनोपाय इति यथा-तथा आलिख्य यथासमीहितं करिष्ये।" इति संस्कृतम् ] । इत्यादि। यथा वा नलविलासे तृतीयेऽङ्के-- "राजा-[ सत्वरम् ] मकरिके प्रभवसि राजपुत्रीमिह समानेतुम ? मकरिका-अहं दाव पर्यातस्सं । आगमणं उण दिव्वस्स बायत्तं । [अहं तावत् प्रयतिष्ये, आगमनं पुनर्देवस्यायत्तम् । इति संस्कृतम्] | राजा-तहि यतस्व ।" इत्यादि। उनसे भी सामाजिकोंको शिक्षा मिलती ही है । (२) प्रयत्नावस्था अब प्रयत्न [के लक्षण प्रादि] को कहते हैं[सूत्र ३६]- [फलके उपायोंके व्यापारमें शीघ्रता [करना] प्रयत्न कहलाता है। मुख्य फल की प्राप्ति के उपायोंको लागू करनेमें शीघ्रता अर्थात् इस उपायके बिना यह फल सिद्ध नहीं हो सकता है। इस प्रकारके निश्चयके कारण [उपायको प्रयुक्त करनेके लिए] अत्यन्त उत्सुकता, प्रकर्षेण यत्न [प्रयत्न इस व्युत्पत्तिके अनुसार] 'प्रयत्न [कहलाता है। [इसका अभिप्राय यह हुआ कि केवल प्रोत्सुक्य प्रारम्भ [अवस्थामें], प्रौर परम प्रोत्सुक्य प्रयत्न [अवस्थामें परिगणित] होता है। जैसे रत्नावलीमें "फिर भी दर्शनका अन्य कोई उपाय नहीं है इसलिए जैसे-तैसे चित्र बनाकर ही अपनी इच्छाको पूर्ति करता हूँ।" इत्यादि। अथवा जैसे नलविलासके तृतीय प्रमें"राजा-[शीघ्रतासे] मकरिके ! क्या तुम राजपुत्रीको यहां ला सकती हो ? मकरिका-मैं [अपनी प्रोरसे पूरा] प्रयत्न करूंगी। किन्तु माना भगवानके अधीन है। राजा--तो [शीघ्र ही] यत्न करो।" इत्यादि। ये दोनों उदाहरण मुख्य फलकी प्राप्तिके प्रति उपायोंका उपयोग करने के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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