________________
८६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३५, सू० ३८
एतासु चावस्थासु नायक-सहाय प्रतिपक्ष दैवव्यापाराणां श्रन्यतमस्य, द्वयोत्रयाणां चतुर्णां च एकस्यां द्वयोस्तिसृषु चतसृषु पश्वस्वपि च यथायथमुन्मीलने वृत्तिः । फल योगस्तु मुख्य नायकस्यैव ।
न च दैवात् कर्मणः प्रारम्भानुन्मीलने मानुषकर्माभावान्नाटकस्याव्युत्पत्तिहेतुत्वम् । दैव मानुषव्यापारयोः परस्परापेक्षयैव शुभाशुभफलसाधकत्वात् । दैवादप्यर्थं पश्यन्तः पुण्यमुपचेतु मानुषे कर्मण प्रवर्तेरन । उपभोगाच्च क्षीयमाणमननुकूलं दैवं प्रति विहितप्राणात्ययाः प्रतीक्षेरन्निति सर्वत्र दैवस्य मानुषव्यापारापेक्षित्वात् देवायत्तफलान्यपि रूपकारिण सामाजिकानां बुद्धिसंस्काराय निबन्धनीयानि । यथा पुष्पदूतिकं मृच्छकटिका चेति ।
ये प्रारम्भावस्था के लक्षण और उदाहरण ऊपर के अनुच्छेदोंमें दिखलाए हैं । अब अगले अनुच्छेद में ग्रन्थकार यह दिखलाना चाहते हैं कि इन अवस्थाओं का प्रदर्शन नायकके व्यापार द्वारा भी हो सकता है और कहीं प्रतिनायक, सहायक तथा देव-व्यापारके द्वारा भी सकता है । और वह केवल श्रारम्भावस्था में ही नहीं अपितु सभी श्रवस्थानों में हो सकता है । कभी-कभी नायक, सहायक, प्रतिपक्ष मोर देव ब्यापारों में से दो, तीन या चारों मिलकर किसी अवस्था विशेषका उन्मीलन कराते हैं । कभी ये चारों या इनमें से एक, दो, या तीन किसी एक अवस्थाका अथवा एकसे अधिक दो, तीन, चार या पांचों अवस्थाओं का उन्मीलन कराते हैं । इसी बात को अगले अनुच्छेद में इस प्रकार दिया है
इन [पाँचों] प्रवस्थानोंमें १ नायक, २ सहायक [ पताका प्रकरी], ३ प्रतिनायक और ४ देव [इन चारों व्यापारोंके] मेंसे किसी एक या दो या तीन अथवा चारोंका, किसी एक [अवस्थाके उन्मीलन] में, अथवा दो या तीन प्रथवा चार या पाँचों [प्रवस्थानों] के उन्मीलन में श्रावश्यकतानुसार व्यापार होता है । [श्रवस्थाओं का प्रकाशन या उन्मीलन चाहे किसीके भी व्यापार से हो किन्तु ] फलको प्राप्ति [ सर्वव] मुख्य नायकको ही होती है ।
इन अवस्थाओं के प्रकाशन में देव व्यापार भी कारण हो सकता है यह बात अभी इस अनुच्छेद में कही है । देव व्यापार को पंचविध अवस्थाओं के प्रकाशन में कारण मानने पर यह प्रश्न उठ सकता है कि नाटकका उद्देश मनोरञ्जनके साथ कर्तव्या कर्तव्यकी शिक्षा देना ही है । जब देवको कारण मानेंगे तो उसपर मनुष्यका नियंत्रण न होने के कारण देवाश्रित कार्योंसे कोई शिक्षा नहीं मिलेगी । यह शङ्का उठाकर उसका समाधान अगले अनुच्छेद में करते हैंदेवके व्यापारसे प्रारम्भ श्रादि [ अवस्थाओं ] के उन्मीलन होनेपर उसमें मानुष व्यापारका प्रभाव होनेसे नाटकको शिक्षा प्रदानका हेतु नहीं कहा जा सकेगा। यह बात नहीं erent चाहिए । [ क्योंकि ] देव तथा मानुष-व्यापार दोनों एक-दूसरेकी सहायतासे हो शुभ और अशुभ फलके साधक होते हैं। [दूसरी बात यह भी है कि] भाग्यसे भी प्रर्थकी प्राति देखकर [देखने वाले ] पुण्यका सश्चय करनेके लिए मनुष्य साध्य कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं । और जीवन संकटमें पड़ जानेपर भी [विहितप्राणात्ययाः] प्रतिकूल दैवके उपभोग द्वारा नष्ट होनेकी प्रतीक्षा कर सकते हैं इसलिए वैवके सर्वत्र मानुष-व्यापारको अपेक्षा रखनेसे देवके अधीन ही जिनका फल है इस प्रकारके रूपक भी सामाजिकोंके बुद्धिको शुद्धिकेलिए बनाने ही चाहिए। जैसे 'पुष्पद्वतिक' तथा 'मृच्छकटिक' आदि [देवायत्त फल वाले रूपक हैं ] ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org