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________________ का० १३, सू०११ ] प्रथमो विवेकः [ ३३ यद् वृत्तमगोप्यतया अन्येषामात्मव्यतिरिक्तानामपि ज्ञाप्यं तत् प्रकाशत इति 'प्रकाशम्' । यत् पुनरन्येषां गोप्यतया स्वहृद्य व स्थितं तत् 'स्वगतम' । परावृत्य अङ्गवलनेनाश्रावयितेभ्यः पराङ्मुखीभूय अन्यस्मै रहस्याख्या या तदपवार्यते बहूनां प्रच्छाद्यत इति 'अपवारितम्। आख्यायते इति आख्या । कर्मसाधनः । तेन वृत्तमपवारितम् । एवमुत्तर. त्रापि॥१२॥ [सूत्र ११]-त्रिपताकान्तरोऽन्येन जल्पो यस्तज्जनान्तिकम् । आकाशोक्तिः स्वयं-प्रश्न-प्रत्युत्तरमात्रकम् ॥१३॥ जो बात गोप्य न होनेसे अपनेसे भिन्न अन्य लोगोंको भी बतलाने योग्य है उसको प्रकाशित किए जाने के कारण 'प्रकाशम्' कहते हैं। और जो [बात] अन्यों से छिपाने योग्य होनेसे अपने मनमें ही रखनी होती है उसको 'स्वगतम्' कहते हैं । शरीर को घुमाकर जिनको सुनाना नहीं है उनकी ओरसे मुख मोड़कर किसी दूसरेसे रहस्यका कथन करना बहुतोसे छिपाए जानेके कारण 'अपवार्यते इति अपवारितम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार 'अपवारितम्' कहलाता है। जिसको कहा जाय वह 'पाख्या' है। [यह कारिकामें पाए हुए 'साख्या' शब्दको व्युत्पत्ति है। इसके अनुसार प्राख्या शब्द] कर्ममें [प्रत्यय करके] सिख होता है। इसलिए [कर्मभूत अर्थात कहा जाने वाला] वृत्त 'अपवारित' [कहलाता है। इसी प्रकार प्रागे [जल्प पादि शब्दोंकी व्युत्पत्ति] भी समझनी चाहिए ॥१२॥ पिछली कारिका में ग्रन्थ कारोंने 'प्रकाशम्', 'स्वगतम्' और 'अपवारितम्' इन तीन नाटकीय परिभाषाओंकी व्याख्या की थी। उसी प्रसंगमें चौथा 'जनान्तिकम्' शब्द भी नाटकोंमें प्रयुक्त होता है । 'जनान्तिकम्' और 'अपवारितम्' शब्द एक-दूसरेसे सम्बद्ध किन्तु एक-दूसरे से विपरीत स्थितिके बोधक हैं। जब बहुसंख्यक अन्य सब लोगोंसे छिपाकर कोई बात किसी एक ही व्यक्तिपर प्रकट करनी होती है तब उसको 'अपवारितम्' कहते हैं। इस 'भपवारितम्' का लक्षण पिछली कारिकामें किया जा चुका है। 'जनान्तिकम्' शब्दका प्रयोग उससे विपरीत स्थितिमें होता है। जो बात किसी एक ही व्यक्तिसे छिपाकर अन्य बहुसंख्यक व्यक्तियोंपर प्रकट करनी होती है उसके प्रकट करनेकेलिए विशेष शैलीका अवलम्बन किया जाता है और उस विशेष शैलीको 'जनान्तिकम्' कहा जाता है। इस शैलीमें 'त्रिपताक' अथवा 'विपताकाकर' का प्रयोग किया जाता है । 'जनान्तिकम्' के समान 'त्रिपताक' शब्द भी नाश्य शास्त्रका पारिभाषिक शब्द है। कनिष्ठिकाके पास वाली 'अनामिका' उमलीको अंगूठेसे दबाकर शेष तीन उंगलिया उठाकर जो हाथकी स्थिति बनती है उसको 'त्रिपाताकाकर' कहते हैं। इस प्रकार हाथको मुखके पास लगाकर एक विशेय व्यक्तिसे छिपाकर अन्यों को सुनाने के लिए जो बात की जाती है उसको 'जनान्तिकम्' कहते हैं । इसीको आगे लिखते हैं [सूत्र ११]-त्रिपताक [अर्थात् जिसमें तीन उंगलियां उठी हुई हों इस प्रकारके] हायको बीच में लगाकर [एक व्यक्तिसे छिपाकर बहुसंख्यक मन्योंके साथ जो वार्तालाप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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