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________________ ( है ) गत ज्ञान अथवा लोकानुश्रुति । इसी के ही बल पर कविजन राम के परम्परागत मथवा लोकानुश्रुत रूप का चित्रण करते चले आये हैं । यद्यपि अपनी कल्पना के आधार पर वे के चरित्र में इधरउधर परिवर्तन भी कर देते हैं, तथापि उन के मूल रूप में, उनकी मूल भावना में कोई अन्तर नहीं माता । वह अपने ही देश विशेष अथवा काल-विशेष के व्यक्ति के रूप में ही चित्रित किये जाते हैं, अन्य देश अथवा काल के व्यक्ति के रूप में नहीं । इसी प्रकार नट भी यद्यपि नाटक में निर्दिष्ट नाटक: कार (अथवा निर्देशक ) के 'स्वगत, प्रकट, सांवेग, सकोप, सहर्ष 'तारस्वरेण' प्रादि निर्देशों द्वारा अभिनय - कौशल प्राप्त करता है, किन्तु किसी व्यक्ति-विशेष के अभिनय के लिए उसे निर्देशन लोकपरम्परा द्वारा ही मिलता है । विरही राम, विरही यक्ष और विरही पुरुरवा के रहविलाप में क्या अन्तर है यह ज्ञान उसे अथवा उसके निर्देशक को केवल लोक-परम्परा द्वारा ही मिलता है । ठीक यही स्थिति की भी है। सीता के वियोग में 'राम' यदि रंगमंच पर सूरने लगता है तो भारतीय परम्परा से प्रभिश प्रेक्षक का 'करुण रस हास्य-विनोद में परिवर्तित हो जाता है, किन्तु इस पप से शि किसी विदेशी के रसास्वाद में कोई अन्तर नहीं आता बिसूरना भी करुण रस की अभिव्यक्ति का कारण बन सकता है पर सामान्य अनुकार्य के अनुकरण-प्रसंग में न कि राम जैसे धीरोदास नायक के प्रसंग में। इस रसभंग अथवा रसास्वाद का एक मात्र कारण है लोक-परम्परागत ज्ञान अथवा लोकानुश्रुति । इसी कसोटी पर यदि कोई नट शामनय करता है तो प्रेक्षक उसे अनुकार्य समझकर रसास्वाद प्राप्त करता है । 6 ८. रस की सुखदुःखात्ककता. इस ग्रन्थ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंग वह है जिसमें रस को सुखदुःखात्मक कहा गया है- सुल्यः खात्मको रसः । ( ३७ ) इस कथन को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकारों का अभिमत है कि जहाँ शृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत प्रोर शान्त ये पाँच रस सुखात्मक, वहाँ करुण, रौद्र, बीस और भयानक ये जार रस दुःखात्मक है ।' प्रथम वर्ग के रस तो निर्विवाद रूप से सुखात्मक है हौ, किन्तु द्वितीय वर्ग के रसों को भी यदि सुखात्मक मान लिया जाता है तो इसी पर रामचन्द्रचन्द्र को आपत्ति है । इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नोक्त चार तर्क उपस्थित किये हैं : १. उनका पहला तर्क यह है कि भयानक प्रादि रस सहृदयों को किसी प्रवर्णनीय क्लेशदशा तक पहुँचा देते हैं । इनसे सामाजिक उद्वेग प्राप्त करते हैं । सुखास्वाद से भी भूला कहीं कोई उद्विग्न होता है ?" सीता का हरण, द्रोपदी के वस्त्रों तथा केशों कः कर्षण, हरिश्चन्द्र की चाल के यहाँ दासता, रोहिताश्व की मृत्यु मादि घटनाओं के अभिनय को देखकर कौन ऐका हृदय है जो सुवास्वाद को प्राप्त करता हो ? 3 २. दूसरा तर्क यह है कि काव्य-नाटक में लौकिक आचार-व्यवहा का चित्रार्थ रूप में दी किया जाता है । कविजन सांसारिक सुखों का वर्णन सुख-रूप में करते है घोर दुःखों का वर्णन दुःख-रूप में। विरही राम-सीता मादि मनुकार्यों की करुणं दशाएँ निस्सन्देह दुःखात्मक १. हिन्दी नाटचदर्पण पृष्ट २६० ॥ २. भयामको बीभत्सः कदलो रौद्रो वा रसास्वादवताम् समास्येयां कामपि क्लेशदशासुप• नयति । अतएव भयानका विभिवद्विजते समाजः । म राम सुशास्वार वेगो घटते । - वही, पृष्ठ २९१ । बड़ी, २२१-२१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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