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________________ का० ३२, सू० ३४ ] प्रथमो विवेकः [ ७७ अथ बिन्दुलक्षयति [सूत्र ३४]--हेतोश्छेदेऽनुसन्धानं बहूनां बिन्दुराफलात् ॥३२॥ उपायानुष्ठानस्यावश्यकर्तव्यादिना व्यवधाने सति नायकप्रतिनायकामात्यादीनां यदनुसन्धान ज्ञान मसौ ज्ञानविचारणफललाभोपायत्वाद् बिन्दुः । सर्वव्यापिस्वाद्वा जले तेलबिन्दुरिव बिन्दुः । आफलादिति बीजवत्समरतेतिवृत्तव्यापकत्वमाह। केवल बीजं मुख सन्धेरेव प्रभृति निबध्यते, बिन्दुस्तु तदनन्तरमिति | ___ इह तावन्नायकसहाय-उभयेभ्यस्त्रिधा फलसिद्धिः। तत्र सर्वेषां स्वव्यापारविच्छित्तावनुसन्धानात्मा बिन्दुर्निबध्यते । यथा च नायकेन प्रतिपक्षेतिवृत्तमनुसन्धीयते, तथा प्रतिपक्षणापि नायकस्यतिवृत्तमनुसन्धीयते । अत एव बहूनामित्युपात्तम् । प्रकरी दोनोंका चरित्र अपरिहार्य नहीं है ] । केवल एक देशमें होनेके कारण [वचिद्भावित्वात्] और स्वार्थानपेक्ष होनेसे [प्रकरी-नायकका] पताका-नायकसे भेद है । पांच उपायों में से बीज, पताका और प्रकरी इन तीन उपायोंका वर्णन हो गया। अब चोथे उपाय 'बिन्दु' का बर्णन प्रसङ्ग-प्राप्त है। उपायोंका चेतन अचेतन रूपमें जो दो प्रकार का विभाग किया गया था। उसमें पताका, प्रकरी तथा बिन्दु इन तीनको चेतन साधनों के वर्गमें रखा था। उनमें से भी पताका और प्रकरी रूप दो चेतन साधनोंका वर्णन हो चुका अब तीसरे चेतन साधन 'बिन्दु' का वर्णन करते हैं। अब बिन्दुका लक्षण करते हैं--- [सूत्र ३४] -[अन्य आवश्यक कार्योंके कारण हेतु [अर्थात् उपायानुष्ठान ] का विस्मरण हो जानेपर भी फिरसे स्मरण 'बिन्दु' कहलाता है। और वह [नायक प्रतिनायक अमात्य प्रादि रूप] बहुतोंका तथा फलप्राप्ति-पर्यन्त [सारे नाटकमें व्याप्त हो सकता है ।३२॥ श्रावश्यक कर्तव्य प्रादिके द्वारा उपायानुष्ठानका [व्यवधान] विच्छेद हो जानेपर नायक, प्रतिनायक, अमात्यादिके द्वारा जो उसका पुनः स्मरण [रूप ज्ञान] वह ज्ञान और विचारके फल-प्राप्तिका उपाय होनेसे 'बिन्दु' [कहलाता है । अथवा [नाटकमें] सर्वत्र व्यापक होनेसे [जलमें तेलका बिन्दु जैसे सारे जलमें फैल जाता है इस प्रकार सारे नाटकमें व्यापक होनेसे] जलमें तैल-बिन्दुके समान 'बिन्दु' [कहलाता है। 'ग्राफलात्' इस [पद से बीजके समान [बिन्दुकी भी] सारे कथाभाममें व्याप्तिको सूचित किया है। [अर्थात् बीजके समान ही बिन्दु भी सारे नाटकमें अन्त तक विद्यमान रहता है। अन्तर] केवल [इतना है कि बीज मुखसन्धिके प्रारम्भसे ही निबद्ध होता है और बिन्दु उसके बाद [प्रारम्भ होता है। किन्तु दोनों नाटकमें अन्त तक व्यापक रहते हैं यह दोनोंकी समानता है। यहाँ [नाटकमें] नायक के द्वारा होने वाली]२ सहायक [क द्वारा तथा३ उन दोनों से मिलकर तीन प्रकारको फलसिद्धि होती है। [उनमें सबको ही अपने व्यापारका विच्छेद हो जाने पर पुनः स्मृति हो सकती है इसलिए नायक और उनके सहायक अमात्यादि] उन सब के ही [सम्बन्धसे अपने-अपने विस्मृत व्यापारको स्मृति रूप 'बिन्दु' को रचना होती है। [और न केवल नायक तथा उसके सहायकोंसे सम्बद्ध 'बिन्दु' की ही रचना होती है अपितु प्रतिनायकके सम्बन्धसे भी। क्योंकि जैसे नायक, प्रतिनायकके वृत्त [चरित्र का अनुसन्धान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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