________________
७]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३२, सू० ३४
नायक विन्दुर्यथा अस्मदुपज्ञे 'राघवाभ्युदये' पश्चमेऽङ्के सुग्रीवचरितश्रवणेनातिपतिते सीतापहारदुःखे सीतां स्मृत्वा रामः-
कलत्रमपि रक्षितु निजमशक्तमात्मान्वयप्रसूतमभिवीक्ष्य मामहद्द जातलज्जाज्वरः | प्रकाशयितुमक्षमः क्षणमपि स्वमास्यं जने । प्रयाति चरमोदधी 'पतितुमेप देवो रविः ॥ इत्यनेन पुनः सीतापहारदुःखमानुसंहितमिति ।
[ ध्यान] करता है इसी प्रकार प्रतिनायक भी नायकके चरित्रका ध्यान [अनुसन्धान] करता है [ इसलिए प्रतिनायककी दृष्टि भी बिन्दुका विन्यास नाटक में हो सकता है ] । इसी लिए [कारिका में] 'बहूनां' इस [पद] का ग्रहण किया गया है ।
'बिन्दु' का यह सामान्य लक्षण किया गया है। इस लक्षण के देखनेसे प्रतीत होता है। कि नायक या उसके सहायक अमात्यादि अथवा प्रतिनायक और उसके सहायक श्रमात्यादिके अन्य आवश्यक कार्यों में व्यापृत हो जाने से कुछ समय के लिए मुख्य बीज रूप उपायकी विस्मृति या विच्छेद हो जाने के बाद उसकी जो पुनः स्मृति होती है उसको 'बिन्दु' कहते हैं । इस स्मृति या अनुसन्धानके बिना नाटकका कार्य आगे नहीं बढ़ सकता है इसलिए इसका होना श्रावश्यक है । एक नाटकमें एक ही जगह नहीं अनेक बार इसका उपयोग किया जाता है । उपायोंका चेतन-अचेतन रूप जो द्विविध विभाग किया गया था उसमें इस बिन्दुको चेतन उपायों में गिना गया था । पर यह बिन्दु स्वयं तो चेतन रूप नहीं है । चेतनका व्यापार रूप है । परन्तु उस स्मरण या अनुसन्धान रूप अचेतन व्यापारको चेतन रूप में मानकर ही चेतन उपायोंके वर्ग में बिन्दुका अन्तर्भाव किया गया है। आगे बिन्दुके उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।
उनमें नायक बिन्दु [का उदाहरण] जैसे हमारे बनाए राघवाभ्युदय [नाटक] में पञ्चम में सुग्रीवके चरित्रके सुननेसे सीताके अपहरणके दुःखके [ कुछ समय के लिए ] विस्मृत हो जानेपर [ फिर दुबारा ] सीताको स्मरण करके राम [निम्न श्लोक कहते हैं ]"अपनी स्त्रीकी रक्षा करनेमें भी श्रसमर्थ मुझको अपने [सूर्यवंश ] वंशमें उत्पन्न हुआ देखकर लज्जासे सन्तप्त [ सूर्यदेव ] क्षरण भरको भी लोगोंको अपना मुख दिखलानेमें अक्षम हो जानेके कारण यह सूर्य देव पश्चिम सागर में डूबने जा रहे हैं ।
इस [ श्लोक ] के द्वारा [कुछ देर के लिए विस्मृत हुए ] सीतापहरणके दुःखको [रामचन्द्र ] पुनः स्मरण करते हैं।
इस प्रकार यह नायक के 'बिन्दु' का उदाहरण है। इसी प्रकारका दूसरा उदाहरण आगे 'तापसवत्सराज' चरितसे देते हैं। उसमें नाटकके नायक वत्सराज उदयन मृगया आदि व्यापारों में लग जाने से कुछ समय के लिए अपनी रानी वासवदत्ताको भूल जाते हैं । इसी बीच में राजा के मृगया - शिविर में जहाँ कि वासवदत्ता ठहरी हुई थी आग लग जाने और रानीके उसी शिविर के भीतर जल जानेका समाचार राजाको मिलता है । उस समाचारको सुनकर राजा को पुनः वासवदत्ताकी स्मृति हो आती है । उसी प्रसङ्ग में से तापसवत्सराजचरितका श्लोक ग्रन्थकारने यहाँ उद्धृत किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org