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________________ का० ३२, सू० ३४ यथा वा 'तापसवत्सराजचरिते' मृगयादिभिरन्यैश्चामात्यव्यापारैर्वत्सराजस्य विच्छिन्नेऽपि प्रियासमागमौत्सुक्यरुपे प्रयोजने, द्वितीयेऽङ्के राजा वासवदत्तां दग्धामुपश्रुत्याह प्रथमो विवेक: रुमण्वन् ! मुञ्च मुख, क्षुद्राग्ने स्मुतोऽपि धूमकलुषात् क्षिप्रस्थितेः सर्वतो ज्वाला ताण्डवकारिणः किमपरं भीतोऽस्मि भाग्यैर्मम । अन्तर्बद्धपदं न पश्यसि सखे शोकानलं तेन माम् एवं वारयसि प्रियानुसरणात् पापः करोम्यत्र किम् ।। इति वासवदत्तायामाग्रह विशेषात् तदेवानुसंहितम् । एवमत्रोत्तरेष्वप्यद्वेषु नायकस्य बिन्दुर्निबद्धोऽस्ति 1 [ ७६ एवं सहाय उभय-विपक्षाणामपि स्वव्यापारानुसन्धानात्मा बिन्दुर्द्रष्टव्यः । ॥ ३२ ॥ अथवा जैसे तापसकासराजचरितमें मृगया श्रादि तथा प्रमात्योंके [द्वारा आयोजित ] अन्य व्यापारोंके कारण वत्सराज [ उदयन ] को प्रिया [ वासवदत्ता ] के समागमके औत्सुक्य रूप प्रयोजनके विस्मृत हो जानेपर भी द्वितीय में राजा [ वत्सराज उदयन शिविर में ] वासवदत्ता जल जाने [ के समाचार ] को सुनकर कहते हैं "राजा --- रुमण्वन् छोड़ो ! मुझे [मत पकड़ो] छोड़ दो । वैसे भी घूमते कलुषित, क्षणिक स्थितिवाले और चारों ओर ज्वालानोंका ताण्डव करनेवाले इस क्षुद्र अग्निसे मैं अपने भाग्यके दोषसे ही डर गया हूँ। और क्या [ कहा जाय ] हे मित्र ! रुमण्वन् ] तुम मेरे हृदयके भीतर भरे हुए शोकानलको नहीं देख पा रहे हो इसी लिए [अग्नि में जलकर मरनेके द्वारा ] प्रियाका अनुसरण करने से मुझे रोक रहे हो। मैं प्रभागा श्रम क्या करूँ । वासवदत्ता प्रति विशेष प्राग्रह होनेसे [ उसके श्रग्निमें जलकर मर जानेका समाचार सुनकर राजाको] उसीका स्मरण हो श्राया है [ जिसको वे मृगया श्रादिके प्रसङ्गमें भूल गये थे ] | इसी प्रकार [ तापसवत्सराजके] अगले श्रङ्कोंसे भी नायकके 'बिन्दु' [अर्थात् अन्य आवश्यक कार्यो प्रसङ्गसे कुछ समय के लिए विस्मृत अर्थको स्मृति ] का निबन्धन किया गया है । Jain Education International यहाँ 'तदेवानुसंहितम्' में 'तत्' पदसे 'प्रियासमागमोत्सुक्य का ग्रहण करना चाहिए । 'तदेव' में 'तत्' पद नपुंसक -लिङ्ग है इस लिए उससे न तो वासवदत्ताका ग्रहण हो सकता है और न प्राग्रहका ग्रहण हो सकता है । इस लिए यहाँ वासवदत्त का स्मरण या आग्रहका स्मरण नहीं अपितु प्रिया के समागमके औत्सुक्यका स्मरण हुआ है । इसी भाँति [नायक ] सहाय, अथवा [नायक श्रौर सहाय ] दोनों और विपक्ष [श्रर्थात् प्रतिनायक और उसके सहायक ] का भी अपने [ विस्मृत] व्यापारका स्मरण एप 'बिन्दु' समझ लेना चाहिए। [ श्रर्थात् उनके उदाहरण नाटकोंमेंसे स्वयं ढूँढ लेने चाहिए] । ऊपर २८वीं कारिका में बीज, पताका, प्रकरी, बिन्दु तथा कार्य रूप पाँच उपाय कहे गए थे उनमें से बिन्दु- पर्यन्त चार उपायोंका विशेष विवेचन क्रमशः "यहाँ तक कर दिया | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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