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________________ ३५८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १५३, सू० २२८ च । विदूषकस्य असम्बद्धक्षणवती। जले पादविकर्षवती, प्रतरणे जठर-शय-कायाबाहुभ्यां जलविपाटनवती च । जलह्रियमाणस्य विसंस्थुलाङ्ग-केश-वसनवती । अन्धअन्धकारगतयोः प्राकृष्यमाणमन्दपदा पुर प्रसारितविलोलहस्ता च। आरोहणे ऊर्ध्वावलोकनपरा, विपरीता त्ववरोहणे। आकाशे समाभ्यां पादाभ्यां, वाहनेः, पक्षाभ्यां वा । आकाशान्यतो विसंस्थुलांगकेश-अंशुका । इत्यायनेको गतिप्रकार इति । तथा रूपस्य शिरसि हस्तौ कृत्वा किञ्चिदास्यचालनानिमिषक्षणाभ्याम् , शब्दस्य शिरसा पार्श्वनतेन, स्पर्शस्य नेत्राकुचनेन, रसमान्धयोश्चैकोच्छवासेनाभिनयः। सर्वोऽपि चाभिनय इष्टो, मध्योऽनिष्टश्चेति त्रिप्रकारः । तत्रेष्टः सौमुख्य-पुलकगात्र-नेत्रविकासादिना क्रियते । मध्यो माध्यस्थ्येन । अनिष्टः शिरःपरावर्तन-नेत्रनासाविकोणनादिति । चतुर्विधश्चात्र मुखरागः, प्रसन्नः, स्वाभाविकों, रक्तः, श्यामरचेति रसौचित्यानतिक्रमेण भवति । यदपि सर्वशरीरसाध्यं भूपातादिकं तदप्याङ्गिक एव । अङ्गोपाङ्गरूपत्वाच्छरीरस्येति ॥ [५०] १५२ ।। अथ सात्त्विकः[सूत्र २२८] -सात्त्विकः स्वरभेदादेरनुभावस्य दर्शनम् । होती है । विदूषकको गति असम्बन बातोंको देखते हुए होती है। पानीमें, पैरोंको घसीटते हुए, तेरते समय पेट, हाप, शरीर तथा बाहमोंसे जलको चीरते हुए, और जल में बहते एकी प्रस्तभ्यस्त हाथ-पैर, केश तथा वस्त्रोंसे युक्त गति होती है। अन्धों और अन्धकारमें चलने वालों को धीरे-धीरे पैरोंको सचेड़ते हुए मोर मागेकी पोर फैले हुए हायको हिलाते हुए [गति होती है]. ऊपर चढ़ते समय ऊपरको भोर देखते हुए और उतरते समय उसके विपरीत [अर्थात् नीचेकी पोर देखते हुए गति होती है। प्राकाशमें दोनों पैर एकसे किए पवा बाहनोंके द्वारा अथवा पंखोंके द्वारा [गति होती है। प्राकाशको छोड़कर अन्यत्र प्रस्त-व्यस्त केश वस्त्राबिसे युक्त अनेक प्रकारका गमनविषि कहा गया है। पौर रूप [के दर्शन] का [अभिनय] सिरके ऊपर हाथ रखकर तनिक सिर हिलाते हुए टकटकी लगाकर देखते हुए नेत्रोंसे, शब्द [के भवरण] का [भिनय] एक प्रोरको सिर झुकाकर सुननेसे, विशेष प्रकारके स्पर्शका अभिनय] पाखें बन्द कर लेनेसे, और रस तथा गन्धका एक लम्बे सांस लेनेके द्वारा होता है। सभी अभिनय र, मध्यम तथा अनित तीन प्रकारका होता है। उनमेंसे इष्ट अभिनय मनको प्रसन्नता, शरीरके रोमांच तथा मेडोंकि विकास प्राविक वारा [प्रदर्शित किया जाता है। मध्य अभिनय मध्मस्पताके द्वारा पोर अनिष्ट.अभिनय [का प्रदर्शन] मुंह फेर लेने और नेत्र एवं नाकके सिकोड़नेके द्वारा किया जाता है। इस प्रभिनयमें प्रसम्म, स्वाभाविक रक्त, लाल तथा काला चार प्रकारका मुनराग होता है । जो रसके प्रोचित्यके अनुसार होता है। और षिवीपर गिर पड़मा प्रावि जो सारे भरीसे साम्य व्यापार है वह भी शरीरके ही प्रगोपांग रूप होनेसे मोगिक प्रभिनयके अन्तर्गत ही होता है। [५०] १५२ ॥ अब सात्विक [अर्थात मानसिक अभिनयका वर्णन करते है]-- . . . [ष २२८] -स्वरमेवादि मनुभावोंका प्रवन साविक अभिनय कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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