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का० १५३, सू० २२६ ]
तृतीयो विवेकः
[ ३५६ मनः सवं तत् प्रयोजनं हेतुरस्येति सात्विकः । मनोऽनवधाने हि न शक्यन्त एव स्वरादयो नटेन दर्शयितुम् | आदिशब्दाद् वेपथुः स्तम्भ-रोमांचमूर्छन+वेद-वैवर्व-अन-निशामोच्छवास सन्ताप- शैत्य - भा-कार्श्य - मेदुरत्व-उल्लुकसन- श्रवहित्य - सावधानता-लाला-फेनमोक्ष-गात्रस्रंसन-हिका देर्ग्रहः । नायमभिनयो वाचिकः शब्दाननुकारात् । नाप्याङ्गिकः अङ्गोपाङ्गसाध्य स्पष्टचेष्टाया अभावादिति । स्वरभेदानुमानं रसोत्तम - मध्यम अधमप्रकृत्याद्यौचित्यानुसारतो द्रष्टव्यमिति ॥
अथाहार्य :
[ सूत्र २२६] - वर्णाद्यनुक्रियाऽऽहार्यो बाह्यवस्तुनिमित्तकः ॥
[५१] १५३ ॥ वर्णः श्वेतादिः । आदिशब्दाद् रस- गन्ध आकल्प श्रायुध वाहन अङ्गाधिक्यदेश -नदी- नगर - वन पक्षि-द्विपद-चतुष्पद-पद-प्रासाद - पर्वतादेर्ग्रहः । बाह्य शरीरव्यतिरिक्तं भस्म धातु-जतु-राग- हरिताल- मषी मृत्तिका वस्त्र-वेणु - दलादिकं निमित्तमस्येति । वाचिकादयस्तु शरीरनिमित्ता इति भेदः । अयं च देश-काल-कुल-प्रकृति-दशा - स्त्रीत्व
एकाग्र मनका नाम सत्व है । वह सत्व जिसका प्रयोजन अर्थात् हेतु है वह सात्त्विक [प्रभिनय ] होता है । मनकी स्थिरता न होनेपर नट स्वरभेदादिका प्रदर्शन नहीं कर सकता है [ इसलिए स्वरभेदादि श्रनुभावोंका प्रदर्शन सात्त्विक अभिनय कहलाता है] । प्रादि शब्द से कम्पन, स्तम्भ, रोमांन, मूर्छा, स्वेद, विवरणंता, प्रांसू निःश्वास, उच्छ् वास, सन्ताप, शैत्य, अम्भाई, कृशता, स्थूलता, उल्लुकसन, श्राकारगोपन [ श्रवहित्था ] सावधानता, लार गिराना या फेन गिराना, शरीरका शिथिल कर देना और हिचको प्रादिका ग्रहण होता है । इन east यह अभिनय शब्दानुकररण रूप न होनेसे वाचिक नहीं कहा जा सकता है और अंगों प्रथवा उपांगों से साध्य स्पष्ट चेष्टारूप न होनेसे प्रांगिक भी नहीं कहा जा सकता है। [इसलिए यह तीसरे प्रकारका सास्विक अभिनय कहलाता है ] । स्वरभेद आदि श्रनुभावोंका प्रदर्शन रस तथा उत्तम मध्यम प्रथम आदि प्रकृतियोंके श्रौचित्य के अनुसार किया जाना चाहिए । द [ वेष भूषादिसे साध्य चौथे प्रकारके] ग्राहायं [ अभिनयका लक्षण करते हैं ][ सूत्र २२९ ] - बाह्य वस्तुओंोंके द्वारा किया जाने वाला वर्ण प्रादिका अनुकरण हार्य [अभिनय कहलाता ] है । [ ५१] १५३ ।
वर अर्थात् श्वेतादि । आदि शब्दसे रस, गन्ध, वेष [ श्राकल्प ] शस्त्र, वाहन, अंगोंकी अधिकता, देश, नदी, नगर, वनपक्षी, द्विपद, चतुष्पद, पदरहित [सर्प आदि ] प्रासाद और पर्वत श्रादिका ग्रहण होता है । बाह्य अर्थात् शरीरसे भिन्न भस्म धातु लाख आदिका राम, हरिताल, स्याही, मिट्टी, वस्त्र, बाँसुरी और पत्रादि जिसके निमित्त प्रर्थात् प्रयोजक हैं [ वह सब श्राहार्य अभिनय कहलाता है ] । और वाचिक आदि [ पहले कहे हुए तीनों प्रकारके अभिनय] तो शरीर निमित्तक होते हैं यह [उन तीनोंसे इस ग्रहार्य अभिनय का ] भेव है । देश, काल, प्रकृति, दशा, स्त्रीत्व, पुंस्त्व, षण्डत्व प्राविके प्रौचित्य के अनुसार इस [पाहार्य अभिनय ] को करना चाहिए ।
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