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________________ नाट्यदर्पणम् तद् गीतं गुरुवाष्पगद्गदगलत्तारस्वरं राधया, येनान्तर्जलचारिभिर्जलचरैरप्युत्कमुत्कूजितम् ॥” सन्निहितदेशस्यापि रूपान्तरापादनं शापः । यथा कादम्बर्या महाश्वेतया वशम्पायनस्य शुकरूपापादनम् । मातापित्रादिपारतंत्र्याद् भाविनवसंगमयोः संगमाभिलाष इच्छा । यथा-"उद्धच्छो पियइ जलं जह जह विरलंगुली चिरं पहियो । पावालिया वि तह तह धारं तर पि तगुएइ ॥ [ऊर्ध्वाक्षः पिबति जलं यथा यथा विरलांगुलिश्चिरं पथिकः । पापालिकापि तथा तथा धारां तनुकामपि तनयति ॥” इति संस्कृतम् ] | ३०८ ] यथा वास्माकं सुधाकलशे [ का० ११२, सू० १६६ " रत्थाइ संचरतं नियच्छिउ पाडिवेसियजुयाणं । कम्मय कम्मं पि हु वरणवइधूश्रा सयं कुरणइ ॥ [ रथ्यायां संचरन्तं दृष्ट्वा प्रतिवेश्मिकयुवानम् । कर्मकरीकर्मापि खलु धनपतिदुहिता स्वयं कुरुते ॥” इति संस्कृतम् ] | "तब कृष्णजीके द्वारका चले जानेपर विरहाकुल हुई राधाने उन [कृष्ण] के द्वारा झोंका दिए जाने के कारण झुकी हुई यमुनाके किनारेकी वेतसलताको पकड़कर बड़े-बड़े आंसू डरकाते हुए और भरे हुए गलेसे उच्च स्वरसे इस प्रकार रुदन किया कि जिसको सुनकर [ यमुनाके] जलके भीतर रहनेवाले जलजन्तु भी गर्दन उठाकर रोने लगे । यह [ प्रणयभंगजन्य मानरूप विप्रलम्भ-शृंगारका उदाहरण है] । [ विप्रलम्भका दूसरा भेद या कारण शाप है । उसका लक्षण करते हैं ] समीपस्थ रहनेवालेका भी अन्य रूप करा देना शाप कहलाता है। जैसे कादम्बरी में महाश्वेताके द्वारा वंशम्पायन को शुक रूपमें बना देना [शापका उदाहरण है] ।. माता-पिता श्रादिके परतन्त्र होनेके काररण [ इस समय जिनका मिलन नहीं हो पा रहा है किन्तु ] श्रागे जिनका प्रथम मिलन होनेवाला है उनकी परस्पर मिलनकी इच्छा अभिलाव (कहलाती ] है [ उसके कारण दो प्रेमियोंका जो मिलनका अभाव है वह अभिलाषजन्य विप्रलम्भ कहलाता है] । जैसे " [पानी पिलानेवालीके पास देर तक रहनेके लिए] ऊपर देखते हुए पथिक अंजलिको अंगुलियोंको विरल अर्थात् खोलकरके जैसे-जैसे पानी पी रहा है उसी प्रकार प्याऊवाली पहलेसे ही पतली धाराको और भी अधिक पतली करती जाती है [अर्थात् पानी पीनेवाले पथिक और पिलानेवाली प्रपापालिका दोनों ही अधिकसे अधिक कालतक एक-दूसरेके पास रहना चाहते हैं] ।" Jain Education International श्रथवा जैसे हमारे [बनाये हुए ] सुधाकलश में [ प्रभिलाषका उदाहरण ] - "पड़ोसी युवकको गलीमें घूमता हुद्या देखकर धनपतिको पुत्री नौकरानीके करने योग्य कामोंको भी अपने-श्राप कर रही है [जिससे उस युवकको देखनेका अवसर मिल सके] ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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