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________________ का० ११२, सू० १६६ ] तृतीयो विवेकः [ ३०७ "एकस्मिन् शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतोरन्योन्यं . हृदयस्थितेऽप्यनुनये संरक्षतोगौरवम् । दम्पत्योः शनकैरपांगवलनामिश्रीभवचक्षुषो र्भग्नो मानकलिः सहासरभसव्यावृत्तकण्ठग्रहम् ॥" अत्र ईयाविप्रलम्भ-सम्भोगयोविर्भावादिकृता सातिशया चमत्कृतिः। प्रथमः सम्भोगान्यो बहुः। परस्परावलोकन-चुम्बन-विचित्रवक्रोक्त्यादिभेदतोऽनन्तप्रकारः। यथा "किमपि किमपि मन्दं मन्दमासक्तियोगादविरलितकपोलं . जल्पतोरक्रमेण । अशिथिलपरिरम्भव्यापूतैकैकदोष्णो रविदितगतयामा रत्रिरेव व्यरंसीत् ॥" अपरो विप्रलम्भः । ईर्ष्या-प्रणयभंगाभ्यां वैमनस्य मानः । यथा "याते द्वारवती तदा मधुरिपौ तहत्तमम्पानतां, कालिन्दीतटरूढवंजुललतामालिंग्य सोत्कण्ठया ' सम्भावना बने रहने और विप्रलम्भ में भी मनमें सम्भोगका [इच्छात्मक अम्बन्ध विद्यमान रहनेसे शृंगाररस उभयात्मक होता है। किन्तु [किसी एक अंशको] प्रधानता कारण सम्भोग शृंगार, विप्रलम्भ-शृंगार इस प्रकार कहा जाता है। दोनों अवस्थामके सम्मिश्रणका वर्णन होनेपर विशेष चमत्कार होता है। जैसे "रूठे होनेके कारण एक ही पलंगपर लेटे होनेपर भी चुपचाप दुःखी होते हुए और मनमें एक-दूसरेके मनानेको इच्छा होते हुए भी अपने-अपने गौरवकी रक्षा करने में लगे हुए बम्पतियोंके घोरेसे प्रांखें घुमाकर देखते समय पाख-से-आंख मिल जानपर उनका प्रणयकलह स्वयं ही समाप्त हो गया और [दोनोंने हंसते हुए वेगसे एक-दूसरेका किण्ठग्रह प्रालिंगन कर लिया।" इसमें ईर्ष्याविप्रलम्भ और सम्भोग दोनोंकी [एक साथ मिश्रित रूपमें] विभावादिके कारण अत्यन्त चमत्कारयुक्त प्रतीति होती है। पहिला सम्भोग नामक शृंगार बहुत प्रकारका होता है । अर्थात् एक-दूसरेके अवलोकन, चुम्बन और नाना प्रकारके सुन्दर वार्तालाप मादि भेदसे अनन्त प्रकारका होता है । जैसे ___ अत्यन्त प्रेमके कारण गालसे गाल मिलाए हुए, गाढ प्रालिंगनमें जिनकी एक-एक भुजा लगी हुई है इस प्रकारके [हम दोनों सीता और रामचन्द्रके] बिना क्रमके [संगत असंगत सभी प्रकारको] बात करते हुए ही सारी रात बीत गई।" यह उत्तररामचरितका श्लोक है । इसमें सम्भोग शृङ्गारके अनेक रूपोंका प्रदर्शन कराया गया है। दूसरा विप्रलम्भ शृंगार [ पाँच प्रकारका होता है यह बात कही जा चुकी है। उन पांच भेदोंमेंसे ] ईर्ष्या अथवा प्रणय कलहके कारण होनेवाला वैमनस्य मान कहलाता है। [मानका उदाहरण] जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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