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________________ ३०६ ] - नाट्यदर्पणम् का० २१२, सू० १६६ त्वात् ततो बीभत्सः । बीभत्सम्य च विम्मयेनापनीयमानत्वात् ततोऽद्भतः । धर्मस्य च शममूलत्वात् तदन्ते शमः। इति । एते शृङ्गारादयो नवैव रसा रञ्जनाविशेषेण पुरुषार्थोपयोगाधिक्येन च सद्भिः पूर्वाचार्यैरुपदिष्टाः । सम्भवन्ति त्यपरेऽपि । यथागर्द्धस्थायी लौल्यः। आईतास्थायी स्नेहः । आसक्तिस्थायि व्यसनम् । अरतिस्थायि दुःखम् । सन्तोषस्थायि सुखामित्यादि। केचिदेषां पूर्वध्वन्तर्भावमाहुरिति ।[६]११२।। अथ सभेदं शृंगारं निरूपति[सूत्र १६६]-सम्भोग-विप्रलम्भात्मा शृङ्गारः प्रथमो बहुः । मान-प्रवास-शापेच्छा-विरहैः पञ्चधाऽपरः ॥१०]११२॥ विलासिनोरन्योन्यानुकूलवतिनोः प्रेमपरयोर्यद् दर्शन-स्पर्शनादिः, स सम्भोगः । परस्परानुरक्तयोरपि विलासिनोः पारतन्त्र्यादेरघटनं चित्तविश्लेषो वा विप्रलम्भः । एतौ द्वावस्यवस्थाविशेषौ आत्मा स्वभावो यस्य अवस्थातु-र्दशाद्वयानुयायिनः आस्थाबन्धात्मकरतिप्रकर्षरूपन्य शृंगारस्य । तेन शृंगारस्य नेमौ भेदौ गोत्वस्येव शावलेयबाहुलेयौ, अपितु सम्भोगेऽपि विप्रलम्भसम्भावनासद्भावात् , विप्रलम्भेऽपि मनसा सम्भोगानुवाद् उभयसंवलितस्वभावः शृंगारः। उत्कटत्वाच्चैकदेशेऽपि सम्भोगशृंगारो विप्रलम्भशृंगार इति चोपचारेणोच्यते । अवस्थाद्वयमीलननिबन्धने च सातिशयश्चमत्कारः । यथाहै इसलिए सबसे अन्तमें शम [ स्थायिभाव वाला शान्तरस ] रखा गया है। विशेषरूपसे मनोरञ्जक तथा पुरुषार्थोकी सिद्धिमें उपयोगी होनेके कारण श्रृंगार प्रादि ये नौ रस ही पूर्ववर्ती सहृवय प्राचार्योने निर्दिष्ट किए हैं। किन्तु इनसे भिन्न और रस भी हो सकते हैं। जैसे तृष्णा रूप स्थायिभाववाला लोल्य, प्रार्द्रतारूप स्थायिभाववाला स्नेह, आसक्तिरूप स्थायिभाववाला व्यसन, अरति रूप स्थायिभाववाला दुःख और सन्तोष रूप स्थायिभाव वाला सुख इत्यादि [अन्य रस भी हो सकते हैं । कुछ लोग [इनको रस तो मानते हैं किन्तु] इनका अन्तर्भाव पूर्वोक्त नौ रसोंमें ही कर लेते हैं ।[६]१११॥ अब प्रागे भेदों सहित शृंगार रसका निरूपरण [प्रारम्भ करते हैं [सूत्र १६६]-सम्भोग और विप्रलम्भात्मक दो प्रकारका श्रृंगाररस होता है। उनमेंसे पहिला [अर्थात् सम्भोग शृंगार) अनन्त प्रकारका [बहुः] होता है। दूसरा [विप्रलम्भ शृंगार] १. मान, २. प्रवास, ३. शाप, ४. ईर्ष्या तथा ५. विरह रूप पाँच प्रकारका होता है। [१०] १११। एक-दूसरेके अनुकूल पड़नेवाले और एक-दूसरेको प्रेम करने वाले [स्त्री-पुरुष रूप दो विलासियोंका जो परस्पर दर्शन स्पर्शन प्रादि है वह सम्भोग [शृंगार कहलाता है। परस्पर अनुरक्त होनेपर भी परतन्त्रता प्रादिके कारण [स्त्री-पुरुष रूप] दोनों विलासियोंका परस्पर मिलन न हो सकना अथवा चित्तका विलग हो जाना विप्रलम्भ शृंगार [कहलाता] है। ये दोनों अवस्था विशेष जिस अवस्थावान् प्रेमबन्ध रूप रतिके उत्कर्ष रूप शृगारका प्रारमा अर्थात् स्वभावभूत है वह ['सम्भोग-विप्रलम्भात्मा' है। यह इस शब्दका अर्थ है] । इसलिए गौओंके चितकबरी पौर काली [ शाबलेयत्व भौर काहुलेयत्व ] भेदोंके समान ये [सम्भोग तथा विप्रलम्भ ] दोनों अलग-अलग भेद नहीं है । अपितु सम्भोगमें भी विप्रलम्भकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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