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नाट्यदर्पणम् . [ का० ४१-४२, स० ४६ उपक्षेपादीनि करणरहितानि युक्तिसहितानि षट अनावश्यं भवन्ति | विलोभनादीनि तु सर्वसन्धिष्वपि भवन्ति । संविधानकवशात् तदर्थस्यान्यत्रापि सम्भवात्। बाहुल्यनिबन्धनापेक्षया त्वत्रोपादानम्। एवमन्यसन्धिष्वपि ज्ञेयम् ।
__ भेदस्तु सवेसन्धिष्वङ्कान्ते, प्रवेशक-विष्कम्भकान्ते च अवश्यं निबन्धनीयः। पात्रभेदरूपत्वात् तस्य । उपक्षप-परिकर-परिन्यासभ्योऽपराण्यङ्गानि वृत्तानुगुण्याउद्देशकमातिक्रमेणापि निबध्यन्ते । आमुखस्य च नटवृत्तत्वेन इतिवृत्तानङ्गत्वात् तदनन्तरमङ्गानां निबन्धः। द्वादशाङ्गमिति सन्धिः। संविधानखण्डान्यङ्गानि सन्धिरूपस्य अङ्गिनोऽवयवत्वेन निष्पादकत्वात् । नहीं है। उस करणको हटाकर उसके स्थानपर युक्तिको जोड़ देनेपर जो उपक्षेप आदि छः अङ्ग बनते हैं उनका मुखसन्धिमें होना अनिवार्य है इस बात को अगले अनुच्छेदमें कहते हैं
करणको छोड़कर और युक्तिको मिलाकर उपक्षेपादि छः [अर्थात् (१) उपक्षेप, (२) परिकर, (३) परिन्यास, (४) समाधान, (५) उद्भेद तथा (६) युक्ति ये छः अङ्ग] यहां [अर्थात् मुखसन्धिमें] अवश्य होते हैं। विलोभनादि [शेष छः अङ्ग] तो सब ही सन्धियोंमें होते हैं। क्योंकि रचनाके अनुसार उनका कार्य 'अन्यत्र' [अर्थात् अन्य सन्धियोंमें भी हो सकता है। [सब सान्धयोंमें सम्भव होनेपर भी] यहाँ [अर्थात् मुखसन्धिमें] उन [विलोभनादि शेष छः अङ्गों का ग्रहण बाहुल्यके कारणसे [अर्थात् मुखसन्धिमें विलोभनादि अङ्गों का अधिकतर प्रयोग होनेके कारण किया गया है। इसी प्रकार अन्य सन्धियों [के अगोंके विषय] में भी मझना चाहिए।
। अर्थात् प्रतिमुखादि अन्य सन्धियोंमें कहे हुए अङ्गोंका प्रयोग भी उस-उस सन्धिसे भिन्न अन्य सन्धियोंमें भी हो सकता है। किन्तु अधिकतर प्रयोग उस-उस सन्धिमें ही होता है, इसलिए उनका ग्रहण उस-उस सन्धिमें विशेष रूपसे किया गया है।
भेद [नामक पाठवें अङ्ग] को सब सन्धियोंमें, अङ्कके अन्तमें, प्रवेशक तथा विष्कम्भकों के अन्तमें अवश्य प्रयुक्त करना चाहिए। क्योंकि वह पात्र-परिवर्तन रूप होता है। उपक्षेप, परिकर तथा परिन्यास [इन तीन अङ्गों को छोड़कर अन्य अङ्ग तो कथावस्तुकी अनुकूलताके अनुसार उद्देश-क्रमका परित्याग करके भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं । प्रामुखके नटवृत्तान्त-रूप होनेसे कथावस्तुका भाग न होनेके कारण [उसके बीच में अङ्गोंका प्रयोग न करके] उसके बाद अङ्गोंका प्रयोग किया जाता हैं। 'द्वादशाङ्ग' इससे बारह अङ्गवाला सन्धि गृहीत होता है। सन्धिरूप अवयवीके अवयव रूपसे निर्माण करनेवाले होनेके कारण [उपक्षेपादि अङ्ग] रचना [संविधानक] के प्रङ्ग कहलाते हैं।
ऊपर जो हमने यह दिखलाया था कि मुखसन्धिके बारह अङ्ग, प्रतिमुख, गर्भ तथा विमर्शसन्धियोंमें से प्रत्येकमें तेरह-तेरह अङ्ग तथा निर्वहरणसन्धिमें चौदह अङ्ग माने गए हैं। यह अङ्गसंख्या केवल उन-उन सन्धियोंमें बतलाए गए अङ्गोंकी दृष्टिसे कही गई है। किन्तु उन सन्धियोंमें, कहे हुए अपने अङ्गोंके अतिरिक्त अन्य सन्धियों के अङ्गोंका प्रयोग भी हो सकता है। उनको मिला देनेपर यह संख्या वाला नियम नहीं रहता है । इसी बातको ग्रन्थकार अगले अनुच्छेदमें लिखते हैं
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