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________________ का० ४१-४२, सू० ४६ ] प्रथमो विवेकः [ १०५ अथ 'दिव्याङ्गम' इत्यत्र अङ्ग-शब्दोपात्तानि उपक्षेपादीनि अङ्गानि विपञ्चयितु प्रथमं (१) मुखसन्धिगतान्युद्दिशतिसूत्र ४६] ---उपक्षेपः परिकरः परिन्यासः समाहितिः । उभेदः करणं चैतान्यत्रैवाथ विलोभनम् ॥४१॥ भेदनं प्रापणं युक्ति-विधानं परिभावना । सर्वसन्धिष्वमूनि स्युः, द्वादशाङ्गं मुखं ध्रुवम् ॥४२॥ 'अत्रैव' इति उपक्षेपादीनि करणान्तानि मुखसन्धावेव भवन्ति । तत्रापि उपक्षे र-परिकर-परिन्यालानां यथोद्देशक्रममादावेव, समाधानस्य तु रचनावशान्मध्यैकदेश एव, उभेद-करणयोस्तु उपान्त्ये निबन्धः । मुखसन्धिके द्वादश अङ्ग पांचवीं कारिका में ग्रन्थकारने नाटकका लक्षण करते समय उसमें पञ्च-सन्धियोंकी चर्चा की थी। उन पञ्च-सन्धियों का निवेचन यहाँ तक समाप्त हो गया। अब आगे उन सन्धियों के अङ्गोंका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । इन अङ्गोंकी संख्या प्रत्येक सन्धिमें अलग-अलग निर्धारित की गई है । मुखसन्धिमें १२ अङ्ग होते हैं। प्रतिमुखसन्धि, गर्भसन्धि तथा विमर्श सन्धि इन तीनों सन्धियों में तेरह-तेरह तथा निर्वहरण सन्धिमें १४ अङ्ग माने गए हैं। इस प्रकार पांचों सन्धियों में कुल मिलाकर अङ्गोंको संख्या पैसठ हो जाती है। प्रागे अन्थकार क्रमशः पाँचों सन्धियोंके इन पैंसठ अङ्गोंका वर्णन करेंगे। उनमें सबसे पहिले मुखसन्धिके बारह भेदोंका उद्देश अर्थात् नाम मात्रेण कथन करते हैं। अब [पाँचवीं कारिकामें नाटकके लक्षणमें पाए हुए] दिव्याङ्गम् इसमें अङ्ग शब्दसे गृहीत होने वाले 'उपक्षेप' प्रादि [पांचों सन्धियोंको मिलाकर ६५] प्रङ्गोंका विवेचन करनेके लिए पहिले मुखसन्धिके [बारह] अङ्कोंका उद्देश [अर्थात् नाममात्रसे कथन करते हैं [सूत्र ४६]--(१) उपक्षेप, (२) परिकर, (३) परिन्यास, (४) समाधान, (५) उपभेद, (६) करण, ये छः अङ्ग] इसमें ही [अर्थात् मुखसन्धिमें ही होते हैं [अन्य सन्धियों में नहीं होते हैं । . सूत्र ४६]----ौर (७) विलोभन, (८) भेदन, (९) प्रापरण, (१०) युक्ति, (११) विधान तथा (१२) परिभावना ये [सात मङ्ग] सब सन्धियोंमें हो सकते हैं। इस प्रकार] बारह प्रङ्गोंवाला मुखसन्धि [रूपकके समस्त भेदोंमें 'ध्रव' अर्थात् प्रवक्ष्य होता है। ___'अत्रैव' इसका अभिप्राय यह है कि उपक्षेपसे लेकर करण पन्त [ प] मुखसन्धिमें ही होते हैं [अन्य सन्धियों में नहीं होते हैं। उनमें भी उपोष, परिकर तथा परिन्यास [इन तीनों अङ्गों] का इस [उद्देशके] क्रमसे [सम्बिके प्रारम्भमें ही सन्निवेश किया जाता है। समाधानका रचनाके अनुसार मध्यके [किसी] एक भागमें ही तथा उद्भेद एवं करणका [मुखसन्धिके प्रायः अन्तमें [उपान्त्ये ही सन्निवेश किया जाता है। कारिका में आए हुए 'अत्रव' पदसे यह कहा था कि उपक्षेपसे लेकर करण पर्यन्त छः प्रङ्ग मुखसन्धिमें ही होते हैं, अन्य सन्धियोंमें नहीं होते हैं। इनमें से करण नामक भङ्ग पन्य सन्धियों में तो होता ही नहीं है किन्तु मुखसन्धिमें भी उसका होना मावश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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