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________________ १२२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ४५, सू० ६१ ये तु न्यायपराः परार्जवधरास्ते पश्यतामी वय नीचैः कर्मकृतः पराभवभृतस्तप्ताश्च वर्तामहे ।।" सुखस्य सुखहेतोश्च अन्वेषणरूपा 'प्राप्तिः' । सन्निहितसुखात्मकं च एकपात्रगतसुखात्मकं च विधानमिति भेदः । (११) अथ परिभावना-- सूत्र ६१]--विस्मयः परिभावना ॥ ४५ ॥ जिज्ञासातिशयेन किमेतदिति कौतुकानुबन्धो विस्मयः, परिभावना ! यथा नागानन्दे__ "[मलयवतीं दृष्ट्वा ] नायकः स्वर्गस्त्री यदि ताकृतार्थमभवच्चक्षुःसहस्र हरेः, नागी चेन्न रसातलं शशभृता शून्यं मुखेऽस्याः स्थिते । जातिनः सकलान्यजातिजयिनी विद्याधरी चेदिय, स्यात् सिद्धान्वयजा यदि त्रिभुवने सिद्धाः प्रसिद्धास्ततः ॥" . किए हैं सो वे हम देखो [रसोइया प्रादिके] नीच कर्मको कर रहे हैं और तिरस्कार प्राप्त कर रहे हैं। मुखसन्धिके 'प्रापण' नामक अङ्गकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। उसमें भी 'प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः' सुख-सम्प्राप्तिको ही उसका लक्षण बतलाया गया था। यहाँ 'विधान' अङ्गमें सुखप्राप्तिको विधान अङ्गका लक्षण बतलाया है। तब इन दोनों में परस्पर क्या भेद है यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। इस लिए ग्रन्थकारने अगली पंक्ति में इन दोनोंके भेदको इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि सुख और सुखके कारणका अन्वेषण जिसमें किया जाय वह 'प्राप्ति' [अर्थात् प्रापरण नामक अङ्ग] है । और [अन्वेषण रूप नहीं किन्तु] सन्निहित सुख स्वरूप तथा एक पात्र गत 'सुखात्मक' विषान होता है यह ['प्रापरण' तथा विधान इन दोनों प्रङ्गाका] भेद है। (१२) परिभावना अब परिभावना [नामक, मुखसन्धिके बारहवें अङ्गका लक्षण करते हैं[सूत्र ६१]-विस्मय [का नाम] 'परिभावना' है। जिज्ञासाके अतिशयके कारण 'यह क्या है इस प्रकारका प्राग्रह, विस्मय [कहलाता) है । वही 'परिभावना' [नामक अङ्ग कहा जाता है। जैसे नागानन्दमें "[मलयवतीको देखकर] नायक [जीमूतवाहन कहता है कि] [यह मलयवती] यदि स्वर्गको स्त्री है तो इन्द्रके सहस्रों नेत्र कृतार्थ हो गए [समझो], यदि यह नाग जातिको स्त्री है तो इसके मुखके विद्यमान रहते पाताललोक चन्द्रमासे शून्य नहीं [कहा जा सकता है । यदि यह विद्याधरी है तो निश्चय ही हमारी [विद्यापर] जाति अन्य जातियोंसे श्रेष्ठ है । और यदि यह सिद्धवंशमें उत्पन्न हुई है तो अब सिद्ध लोग त्रिभुवन में प्रसिद्ध हो जायेंगे [यह समझो] । इसमें मलयवतीके सौन्दर्यातिशयको देखकर जीमूतवाहन अपने विस्मयको प्रकट कर रहा है पतः यह 'परिभावना' नामक अङ्गका उदाहरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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