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का० ४५, सू० ६० ] प्रथमो विवेकः
[ १२१ "दृष्टि' प्रेमभरालसां मयि मुहुविन्यस्य लज्जावती, कालस्याहमिहासहेत्यविरत प्रत्यर्पयन्ती मनः । जाता देवि तदा ममापनयने हेतुस्त्वमेवाधुना।
कि सन्देशनवीभवत्कुलगृहोत्कण्ठाधिकं ताम्यसि ॥" अत्र च वासवदत्तायाः प्रवासाभ्युपगमाद् दुःखम । वत्सराजस्य चाविदितप्रवासवृत्तान्तस्य सुखम् । एकस्य सुखस्य प्राप्तिर्यथा रत्नावल्याम्--
"कश्त्रणमाले पइट्ठावेहि असोयमूले भयवंतं पज्जुन्नं । [इत्युपक्रमे] [काश्चनमाले प्रतिष्ठापयाशोकमूले भगवन्तं प्रद्युम्नम् । इति संस्कृतम्] राजा-कुसुमसुकुमारमूर्ति-दधती नियमेंन तनुतरं मध्यम् ।
आभासि मकरकेतोः पावस्था. चापयष्टिरिव ॥ इत्यारभ्य, 'वासवदत्ता राजानं पूजयति' इति यावत् ।। एकस्य दुःखस्य यथास्मदुपज्ञे निर्भयभीम-नाम्नि व्यायोगे"भीमः--
अन्यायैकजुषः शठव्रतजुषो येऽस्माकमत्र द्विषः,
ते नन्दन्ति मद वहन्ति महतीं गच्छन्ति च श्लाध्यताम् । "मेरी मोर बार-बार प्रेमभरी दृष्टि डालती हुई, लज्जायुक्त, और 'मैं अधिक विलम्बको सहन नहीं कर सकती हूं' इस प्रकार [अपना] मन समर्पित करती हुई, हे देवि ! उस समय तुम हो मेरे हटानेका कारण बनी तो फिर संदेशसे पितृगृहको उत्कण्ठाके नवीन हो जानेसे इस समय क्यों दुःखी हो रही हो ?"
यहाँ वासवदत्ताके प्रवास स्वीकार करनेके कारण दुःख है । और प्रवासका वृत्तांत न विदित होनेके कारण वत्सराजको सुख है । [इस प्रकार भिन्न-भिन्न पात्रों में अलग-अलग सुखदुःखको प्रातिरूप विधानका यह उदाहरण है।
एक सुखको प्राप्ति का उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें---
"काञ्चनमाले ! अशोकके नीचे भगवान् कामदेव [प्रद्युम्न] को स्थापित करो। [इसके प्रसङ्गमें]
राजा-कुसमोंके समान सुकुमार देहवाली और व्रत-पालनके कारण और भी अधिक क्षीण मध्यसे युक्त तुम मकरकेतु [कामदेव के पास रखी हुई चापष्टिके समान प्रतीत होती हो [शोभित होती हो।
__ यहाँसे लेकर 'वासवदत्ता राजाको पूजा करती हैं। यहां तक केवल एक सुखकी प्राप्ति का वर्णन होनेसे यह विधान नामक अङ्गका उदाहरण है।
केवल दुःखकी प्राप्ति [ का उदाहरण ] जैसे हमारे बनाये : 'निर्भयभीमसेन' नामक ध्यायोगमें [भीम कहते हैं]--
भीम-केवल अन्यायपर प्रारूढ़, दुष्टताका व्रत धारण किए हुए, यहाँ हमारे को शत्रु है, मानन्द कर रहे हैं, गर्व धारण किए फिरते हैं और सब जगह प्रशंसा प्राप्त कर रहे हैं। और हम] जो न्यायका अवलम्बन कर रहे हैं और प्रत्यन्त सरलताको धारण
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