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नाट्यदर्पणम् का० १०६, सू० १६३ ये पुनरपरमार्थसन्तोऽपि काव्याभिनयाभ्यां सन्त इवोपनीता विभावास्ते श्रोतृअनुसन्धात प्रेक्षकाणां सामान्यविषयमेव स्थायिनं रसत्वमापादयन्ति । अत्र च विषयविभागानपेक्षीरसास्वादप्रत्ययः।न हिरामस्य सीतायांशृङ्गारेऽनुक्रियमाणे सामाजिकस्य सीताविषयः शृङ्गारः समुल्लसति । अपि तु सामान्यस्त्रीविषयः । नियतविषयस्मरणादिना स्थायिनः प्रतिनियतविषयतायां तु प्रतिनियतविषय एव रसास्वादः ।
तथा अपरमार्थसतां,' अभिनय-क्राव्याप्तिानां च विभावानां बहुसाधारणत्वाद् य एकस्य रसास्वादः सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा, इत्ययोगव्यवच्छेदेन न पुनरन्ययोगव्यवच्छेदेन।
और वास्तविक रूपमें न होनेपर भी काव्य या अभिनय [नाटक] के द्वारा विद्यमानसे प्रतीत होनेवाले जो विभावावि हैं वे [काव्यके] श्रोता, अनुसन्धाता [अर्थात् निर्माता तथा प्रेक्षक [तीनोंमें] सामान्य विषयक स्थायिभावको ही रसरूपताको प्राप्त कराते हैं। यहां [मर्थात् काव्यनाटकमें] विषय-विभागको अपेक्षा न करने वाला रसास्वाद होता है। [अर्थात काव्य नाटक प्राविमें सामान्य-विषयक और विशेष-विषयक दो प्रकारका रसोदकोष नहीं होता है। रामके सीता-विषयक शृङ्गारका अनुकरण होनेपर सामाजिकमें सीता-विषयक [अर्थात् व्यक्ति विशेषसे सम्बन] शृङ्गारानुभूति नहीं होती है अपितु सामान्य स्त्री-विषयक [शृङ्गारकी ही अनुभूति होती है। लोक नियत विषयके विद्यमान न होनेपर भी] नियत विषयके स्मरणादि से नियत-विषयक [अर्थात उस स्मर्यमारण व्यक्ति-विशेषसे सम्बद्ध] ही रसास्वाद होता है।
अर्थात् लोकमें भी विभावादिको वास्तविक रूपसे विद्यमान पोर वास्तविक रूपसे पविद्यमान होनेपर भी स्मर्यमाण, दो रूपों में स्थिति हो सकती है । और उनसे विशेष-विषयक अर्थात् विशेष-व्यक्तिसे सम्बद्ध रूपमें भी रसानुभूति हो सकती है। किन्तु काव्य और नाट्य में विभावादि वास्तविक रूपमें विद्यमान नहीं होते हैं। केवल काव्य तथा अभिनयके द्वारा समर्पिन्न होते हैं। इसलिए उनसे विशेष-विषयक रसानुभूति न होकर सामान्य-विषयक रसानुभूति ही होती है । इस बातको अगली पंक्तियोंको इस प्रकार लिखते हैं---
और वास्तवमें अविद्यमान किन्तु [केवल] काव्य तथा अभिनयकेद्वारा समर्पित विभावोंके अनेक पुरुषोंके लिए समान होनेसे [बहुसाधारणत्वात्] जो.[उन बहुतसे सामाजिकोंमेंसे किसी एकका रसास्वाद है वह अन्यका प्रतिक्षेपक रूप [अर्थात् अन्योंकी रसानुभूतिमें बाधक न होने से[उस विशेष सामाजिकमें] अयोगव्यवच्छेदसे [अर्थात् प्रवश्य] रहता है, प्रन्ययोग-व्यवच्छेदक [अर्थात् अन्यों में उसकी स्थितिमें बाधक बनकर] नहीं रहता है।
यहाँ 'य एकस्य रसास्वादः सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा इत्ययोगव्यवच्छेदेन न पुन रन्ययोगव्यवच्छेदेन' यह सारी पंक्ति तनिक क्लिष्ट पंक्ति है। पंक्तिके प्रारम्भमें 'तथा परमार्थसतो' पद भी संदिग्ध-सा या भ्रमजनक हो सकता है । उसमें 'तथा' के मागे 'परमार्थसतां' पदावेद न करके तथा अपरमार्थसतां' इस प्रकारका पदच्छेद करना चाहिए। क्योंकि काव्य नाटक पादिमें जो विभावादि होते हैं वे 'परमार्थसत्' वास्तविक रूप में विद्यमान नहीं होते हैं। इसलिए यहाँ 'तथा अपरमार्थसतां' यही पदच्छेद करना उचित है । इसके बाद 'य एकस्य रसास्वादः सोन्यान् प्रति क्षेपात्मा' इस प्रकारका पाठ पूर्व संस्करणमें छपा था। पूर्व पाठके समान १. परमार्थसतां:
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