SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० ७०, सू० १२१ ] द्वितीयो विवेकः [ २१३ [ सूत्र १२१ ] - चतुरंका बहुस्त्रीका नृपेशा स्त्री-मही-फला । कल्य्यार्था कैशिकमुख्या पूर्वरूपद्वयोत्थिता । [५] ७० ।। प्रख्याति ख्यातितः कन्या- देव्योर्नाटी चतुर्विधा । 'चतुरंक' इति अवस्थात्रयसमाप्तिपरिच्छिन्नास्त्रयोऽङ्काः । कस्याश्चिदवस्थायाः प्रभूतरसेऽवस्थान्तरे समावेशेन युगपदवस्थाद्वयसमाप्त्या कविच्छेदे चत्वारोऽङ्काः । अल्पं हि वृत्तं नाटिकायामतो वृत्तसंक्षेपार्थमवस्थायाः समावेशः । बहुस्त्रीकता च कैशिकमुख्यत्वेन शृङ्गाररसबाहुल्यात् । अत एव ललिताभिनयात्मिकाः । स्त्रियश्च देवी - दूती-सखी-बेटी-कन्यकादयः । नृपः कैशिकीप्रथानत्वाद धीरललितो राजा ईशो नेता यस्याम् । अत एवात्र प्रकरणो भवत्वेऽपि सर्वो राजोचितो व्यवहारः । नायकानुसारित्वात् सर्वव्यवहारस्य । 'स्त्री - महीफला' इति स्त्रीलाभपुर:राज्यप्राफिला । 'कल्य्यार्था' इति कर्म-करणव्युत्पत्तिभ्यां 'अर्थ' फलमुपायाश्च । [सूत्र १२१ क ] -चार घंकों वाली, अनेक स्त्री पात्रों, राजा रूप नायक, और स्त्री प्रथवा पृथिवी [की प्राप्ति रूप] फल वाली, कल्पित प्रयं प्रधान, कैशिकी बहुल, पूर्वकथित दोनों रूपकों [अर्थात् 'नाटक' और 'प्रकरण'] से उत्पन्न, 'नाटिका' होती है। [यह 'नाटिका' का लक्षण हुआ ] । [५] ७० ।। [ क्षेत्र १२१ ] - कन्या और देवी [दो प्रकारको इसकी नायिकाएं होती हैं उन दोनों] के [भी] मप्रसिद्ध तथा प्रसिद्ध होनेसे [बो-दो भेद हो जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर] 'नाटिका'के चार भेद होते हैं । ['नाटक' में साधारणत: 'कार्य' की पाँच 'अवस्थाएं' बतलाई गई हैं और उनमेंसे प्रत्येक 'अवस्था' का वर्णन एक-एक अंक में पूरा होनेके कारण 'नाटक' में कम-से-कम पाँच अंक भावश्यक माने गए हैं किन्तु 'नाटिका' में चार ही अंक बतलाए हैं। इसका उपपादन करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि 'चतुरंक' इससे तीन अवस्थाओंोंकी समाप्तिसे युक्त तीन अंक और किसी एक अवस्था का प्रधानभूत अन्य अवस्था में समावेश कर एक साथ दो अवस्थानोंकी समाप्ति वाला एक [ चौer] अंक, इस प्रकार चार अंक होते हैं । 'नाटिका' में कथावस्तु कम होने के कारण कथावस्तुके संक्षेपकेलिए ही एक अवस्थाका [किसी दूसरी अवस्थामें] समावेश कहा गया है । [नाटिकामें] कैशिकोको प्रधानताके कारण श्रृंगाररसको प्रमुखता होनेसे बहुत स्त्रियाँ [श्रावश्यक ] होती हैं। इसी कारण [ वे स्त्रियां] ललित प्रभिनय बाली होती हैं । [नाटिकाको] स्त्रियाँ देवो, दूती, सखी, चेटो, और कन्या आदि होती हैं। ['नृपेशा' में] ग्रुप [शब्द] से धीरललित राजा, [का प्रहरण होता है] वह जिसमें स्वामी अर्थात् नायक हो [वह 'नृपेश' नाटिका होती है ] । इसीलिए [नाटिकाके] 'प्रकररण' से उद्भूत होनेपर भी उसमें सारा व्यवहार राजाके योग्य हो होता है। क्योंकि सारा व्यवहार नायकके अनुरूप ही उचित होता है । "स्त्री-महीफला" इससे [ यह बात सूचित की है कि ] स्त्रीलाभ पुरःसर राज्यप्राति [नाटिकाका ] फल होता है । 'कल्प्ग्रार्या' इसमें [ 'अभ्यंते इति अर्थ:' इस प्रकारको कर्मपरक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy