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________________ २१२ ] नाट्यदर्पणम् । का० ७०, सू० १२१ [सूत्र १२०] शेषं नाटकवत् सर्व कैशिकीपूर्णतां विना ॥ [४] ६६॥ ___ उक्ताद् वणिक-विप्र-सचिव-स्वाम्यादिकाल्लक्षणाच्छेषं अपरमभिनेयप्रबन्धोचितं फल-श्रत-उपाय-दशा-संधि-संध्यंग-प्रवेशक-विष्कभक-अंकावतार-अंकमुख-चूलिकावृत्तिभेद-रसादिकं यथा नाटके लक्षितं तथात्रापि सर्वमौचित्यानतिक्रमेणायोज्यम् । वृत्तिचतुष्टयस्यातिदेशेऽपि कैशिकीबाहुल्यं न निबन्धनीयम् । क्लेशप्राचुर्येण शृङ्गारहास्ययोरल्पत्वात् । यथा मृच्छकटी-पुष्पदूतिक-तरंगदत्तादिषु । यत्पुन-र्भवभूतिना मालतीमाधवे कैशिकीवाहुल्यमुपनिबद्धं, 'तन्न वृद्धाभिप्रायमनुरुणद्धीति । तदयं संक्षेपः-यस्य पूर्वप्रसिद्ध एवार्थे कुतूहलं असौ मुनिप्रणीतशास्त्रप्रसिद्धचरितेन नाटकेन राजादिरुत्तमप्रकृतिव्युत्पाद्यते । यस्य पुनरुत्पाद्येऽर्थे कुतूहलमसौ वणिगादिभिर्मध्यमप्रकृतिः ‘प्रकरणेन' । दुर्मेधसां हि न्याय्ये वर्त्म नि प्रवृत्यर्थ कवयोऽभिनेयप्रबन्धान प्रथ्नन्तीति ॥ [४] ६६ ॥ अथ प्रकरणानन्तरोद्दिष्टां नाटिकां लक्षयितुमाह [सूत्र १२०]-कैशिकीकी पूर्णताको छोड़कर शेष सब नाटकके समान 'प्रकरण' में भी होता है। [४] ६६ । [प्रकरणके लक्षणमें विशेष रूपसे कहे हुए] परिणक विप्र, अथवा अमात्यके नायकत्वादि रूप विशेष लक्षणके अतिरिक्त अभिनय प्रबन्धके योग्य अन्य १ फल, २ अंक, ३ उपाय, ४ दशा, ५ सन्धि, ६ सन्ध्यंग, ७ प्रवेशक, ८ विष्कम्भक, ९ अंकावतार, १० अंकमुख, ११ चूलिका, १२ वृत्तिभेद और १३ रसादिक सब अंसे नाटकोंमें कहे गए है उसी प्रकार पौचित्यका प्रतिक्रमण न करते हुए यहां [प्रकरण' में भी प्रयुक्त करने चाहिए । [स] सामान्य नियमसे साम्स्वती प्रारभटी कंशिको भारती प्रावि चारों वृत्तियोंकी प्राप्ति होनेपर भी ['प्रकरण' में कैशिकीके बाहुल्यका प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि उसमें क्लेशका प्राषिषय होनेसे भृङ्गार और हास्यका अवसर कम होता है इसलिए 'प्रकरण' में कैशिकी वृत्तिका अधिक प्रयोग उचित नहीं होता है। जैसे मृच्छकटिक, पुष्पतिक मोर तरंगदत्त मादि [प्रकरणों में [कंशिकी वृतिका अधिक प्रयोग नहीं किया गया है। भवभूतिने जो अपने मालती माधव ['प्रकरण'] में कैशिकीका प्रचुर प्रयोग किया है वह वृद्ध-सम्प्रदाय [अर्थात् पूर्व आचार्योंके मत] के अनुकूल नहीं है। इसका सारांश यह हुमा कि-जिनको पूर्वप्रसिद्ध चरित प्राबिमें ही अभिरुचि होती है उन राजादि उत्तम प्रकृतिके लोगोंको मुनियोंके बनाए हुए शास्त्रारिमें प्रसिक परित वाले नाटकादिके द्वारा ही ध्युत्पत्ति कराई जाती है। और जिनको कल्पित में अभिनधि होती है उन मध्यम प्रकृति वाले वणिक माविको 'प्रकरण' के द्वारा व्युत्पत्ति कराई जाती है। क्योंकि मन्दबुखियोंको उचित मार्गमें प्रवृत्त कराने के लिए ही कविजन अभिनय [नाटकारि] प्रबन्धोंकी रचना करते है ॥ [v] ६६॥ ३. तृतीय रूपक भेद 'नाटिका' का लक्षण अब 'प्रकरण' में अन्तर कही हुई 'नाटिका' का लक्षण करनेकेलिए कहते हैं१. तत्र । २. मुत्पाद्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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