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( ५४ ) ३. 'जैनी' वाणी के अनुरूप काव्य के द्वारा भी इन पुरुषार्थों में से रचयिता अथवा पाठक को वही फल प्रधानता से प्राप्त होता है जो उसे प्रभीष्ट होता है और शेष फल उसे गोण रूप से मिलते हैं।
४. जनी' वाणी से तात्पर्य काव्य-नाटक भी लिया जा सकता है, क्योंकि यह वाणी (रचना) भी 'जिनों' अर्थात् राग प्रादि के विजेताओं-काव्यनाटककारों-की होती है।
काव्यप्रयोजनों में पुरुषार्थचतुष्टय को सर्वप्रथम भामह ने स्थान दिया था और इनके उपरान्त रुद्रट और कुन्तक ने । अग्निपुराणकार ने मोक्ष को छोड़ कर शेष त्रिवर्ग को ही काव्यप्रयोजन माना था । रामचन्द्र-गुणचन्द्र के उपरान्त विश्वनाथ ने भी पुरुषार्थ-चतुष्टय को काव्यप्रयोजन के रूप में स्वीकार किया। इन चारों में से अर्थप्राप्ति ऐसा प्रयोजन है, जिस पर कोई विवाद नहीं किया जा सकता। 'धर्म' से तात्पर्य यदि 'धार्यते इति धर्म:' अर्थात् शुभ कर्तव्य का पालन है, तो यह काव्य का साक्षात् प्रयोजन न होकर प्रसाक्षात् प्रयोजन है । कर्तव्य वस्तुत: उस कर्म का नाम है जिसे हम दूसरों की प्रेरणा प्रथवा उपदेश द्वारा करते हैं तथा दूसरों के उपकार के लिए करते है, किन्तु काव्य-सर्जन अन्तःप्रेरणा से प्रसूत होने के कारण न तो दूसरों की प्रेरणा अथवा उपदेश की अपेक्षा रखता है और न इसके द्वारा दूसरों का उपकार करना कवि का प्रमुख उद्देश्य होता है । और यदि 'धर्म' से तात्पर्य 'पुण्यफल-प्राप्ति' लिया जाए तो इसे भाज के बुद्धिवादी युग का मानव स्वीकार नहीं करेगा। ठीक यही स्थिति 'मोक्ष' नाम काव्यप्रयोजन की भी माननी चाहिए, क्योंकि स्वयं ग्रन्थकार ने धर्म और मोक्ष में कारण-कार्य सम्बन्ध स्वीकार किया है। शेष रहता है एक पुरुषार्थ- 'काम' अर्थात् अभीष्ट फल की प्राप्ति । 'काम' शब्द से यदि मानवीय रागात्मक भावों की इच्छापूर्ति यह अभिप्राय लिया जाए तो इसे प्रकारान्तर से प्रलोकिक मानन्दप्राप्ति का पर्याय मान सकते हैं जिसे मम्मट ने 'सद्यःपरनिर्वृति' नाम दिया है। वस्तुत: यही फल काव्य का.प्रमुख एवं अभीष्ट प्रयोजन है । किन्तु नाट्यदर्पण में इसे स्पष्ट शब्दों में स्थान नहीं मिला।
इस ग्रन्थ के इस प्रसंग में उपयुक्त एक विशेषता उल्लेखनीय है कि जो सहृदय जिस फल-प्राप्ति के लिए काव्य-निर्माण अथवा काव्य-पठन करता है उसे वही फल तो प्रमुख रूप से मिलता है और शेष फल गौण रूप से । निस्सन्देह उनकी यह धारणा अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में देखने को नहीं मिलती। किन्तु 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' इस कथन पर भी माज का बुद्धिवादी मानव पूर्ण प्रास्था एवं विश्वास नहीं रखता । दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इन्होंने काव्य-नाटक की रचना को भी 'जैनी' वाणी इसलिए कहा है कि यह राग प्रादि के विजेतानों को वारणी होती है । ग्रन्थकारों ने यद्यपि श्लेष के बल पर ही यह खेंचतान करने का प्रयास किया है, किन्तु उनकी यह धारणा निस्सन्देह मान्य है । काव्य-नाटक प्रणेता इनके प्रणयन के समय सांसारिक राग-द्वेष, सुख-दुःख, लाभ-हानि मादि द्वन्द्वों से ऊपर उठ चुका होता है । चित्त की एकाग्रता के बिना वह कवि-कर्म भी नहीं कर सकता। समाधि की अवस्था अथवा वेद्यान्तरस्पर्शशून्यता इस कर्म के लिए नितान्त मनिवार्य है । तटस्थता इस कर्म की भाषारशिला है । यही कारण है कि किसी उद्देश्य को लक्ष्य में रख कर रचित ग्रन्थ अथवा काव्य-नाटक वास्तविक 'काव्य' कहाने के अधिकारी नहीं होते ऐसे काव्यों से साम्प्रदायिकता अथवा 'प्रापेगण्डा' के दुर्गन्ध की लपटें उठा करती है।
१. इष्टलक्षणत्वाम्ब फलस्य यो यस्य पुग्वार्थोऽभीष्टः स तस्य प्रधानम् । -वही, पृष्ठ । २. जिनाना रागावितला नालाबपनापेक्षयं बनी। -वही, पृष्ठ ११
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