________________
का० १०, सू० ८ ]
अथ चरितशब्दं व्याचष्टे
9
[ सूत्र ८ ] -- मुख्यमिष्टफलं वृत्तं अङ्गं प्रासङ्गिकं क्वचित् । सूच्यं प्रयोज्यमभ्यू, उपेक्ष्यं तच्चतुर्विधम् ॥१०॥
प्रथमो विवेकः
मुख्यं सर्वप्रबन्धव्यापित्वात् प्रधानम् । इष्टं सर्वोत्कर्षेण कवेरभिप्रेतं फलं यस्य । वृत्तं चरितम् । अङ्ग मुख्यवृत्तस्यानुयायित्वादवयवः । प्रसङ्गात् परकीययत्नादागतं प्रासङ्गिकम् ।
इह तावत् न निसर्गतः किञ्चिच्चरितं मुख्यमङ्ग वा, किन्तु बहुष्वपि फलेषु कविर्यस्य अत्यन्तमुत्कर्षमभिप्रैति तत्फलमिष्टम् । अनेन च यत् फलवद् वृत्तं तदिह मुख्यम् । तदितरत् अङ्गत्वात् प्रासङ्गिकम् । रामप्रबन्धेषु हि सुग्रीवमैत्री - शरणागत
[ २६
करने वाला । 'प्रहङ्कार' अर्थात् सर्वथा अभिमान शून्य | धीरोदात्त [नायक ] तो [अभिमानयुक्त होनेपर भी ] विनयके द्वारा अपने अभिमानको छिपा लेने वाला होता है यह [षीर प्रशान्त से उसका ] भेद है । 'विनयी' अर्थात् गुरुजन श्रादि [की प्राज्ञा या मर्यादा] का उल्लंघन न करने वाला | ये धर्म केवल उपलक्षण मात्र है । इसलिए प्रौचित्यके अनुसार धीरोद्धत आदि [ नायकों] में अन्य धर्म भी समझ लेने चाहिए ॥ ८-६ ॥
चरित के दो भेद
नाटक में वर्णित प्राख्यान वस्तु जिसको यहाँ ग्रन्थकारने 'वृत्त' तथा 'चरित' शब्दोंसे निर्दिष्ट किया है दो प्रकारका होता है। एक मुख्य और दूसरा उसका अङ्गभूत । नाटक में वरित प्रधान फल की प्राप्ति जिसको होती है वह पात्र नाटकका नायक या प्रधान पात्र होता है । उसका चरित मुख्य चरित कहलाता है । और शेष सब चरित उसकी कार्यसिद्धिके उपकारक होते हैं इसलिए वे सब उसके प्रङ्गभूत चरित माने जाते हैं । इसी बातका प्रतिपादन ग्रन्थकार इस कारिकाके विवरण में निम्न प्रकार करते हैं
Jain Education International
[ सूत्र ८ ] - [ कविके द्वारा अभिप्रेत ] प्रधान फल जिसको प्राप्त होता है उसका चरित [ इष्टफलं वृत्तं] मुख्य [ चरित कहलाता है] । और [ श्रनिवार्य रूपसे सर्वत्र नहीं अपितु 'क्वचित्' श्रर्थात् ] कहीं-कहीं [afरंगत ] प्रासाङ्गिक [वृत्त] ग्रङ्ग [प्रप्रधान चरित कहलाता ] है । [इन दोनों प्रकारके चरितोंके भी उनकी अभिव्यक्तिको प्रक्रियाको दृष्टिसे चार भेद होते हैं । उनके नाम इस कारिकामें निम्न प्रकार दिखलाए हैं] वह भी १ सूच्य, २ प्रयोज्य, ३ श्रभ्यूह्य [कल्पनीय] श्रौर ४ उपेक्षणीय [भेदसे] चार प्रकारका होता है ॥ १०॥
सारे प्रबन्ध [ अर्थात् सारे नाटक में भाविसे लेकर अन्त तक निरन्तर] व्यापक रहनेसे प्रधान [ चरित हो ] मुख्य [ चरित कहलाता ] है । [ उसका लक्षरण यहाँ 'इष्टफलम्' किया गया है । इसलिए इस शब्दका अर्थ प्रागे देते हैं ] । 'इष्ट' अर्थात् कवि जिसके फलको सबसे उत्कृष्ट रूपमें चाहता है [वह 'इष्ट' फलं इष्ट फल वाला वृत्त] है [वृत्त अर्थात् चरित] । श्रङ्ग-प्रर्थात् मुख्य चरितका अनुगामी होनेसे उसका श्रवयव [ श्रङ्ग-चरित कहलाता है ] । प्रसङ्ग प्रर्थात् अन्य [विषयक ] यत्न से प्राप्त होने वाला वृत प्रासङ्गिक [चरित कहलाता ] है ।
इनमें से कोई भी चरित स्वभावत: मुख्य या श्रंग-रूप नहीं होता है । किन्तु अनेक फलोंमें से कवि जिसको प्रत्यन्त उत्कर्ष [ दिखलाना ] चाहता है वह फल 'इष्ट' [फल होता ] है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org