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नाट्यदर्पणम्
[ का० १०, स०८ विभीषणरक्षण-रावणवध-सीताप्रत्यानयनादिषु सीताप्रत्यानयनस्यैव प्राधान्य विना प्रतिपादितम् । तत्सम्पादनाय तदितरेषु प्रवृत्तेः । अत एव तान्यङ्गानि ।
- कविरपि न स्वेच्छया फलस्योत्कर्ष निबधुमर्हति, किन्त्वौचित्येन । यस्य धीरोद्धतादे-र्यदेव फलमुचितं तस्यैवोत्कर्षों निबन्धनीयः। प्राङ्गिकस्यापि च मुख्यवृत्तप्रयत्नेनैव निष्पत्तिविधेया । प्रयत्नान्तरे हि तदपि मुख्यं स्यात् । तापस वत्सराजे हि वत्सराजस्य मुख्याय कौशाम्बीराज्यलाभाय प्रयत्नेनैव यौगन्धरायणव्यापारण प्रासङ्गिक वासवदत्तासंगम-पद्मावतीप्राप्त्यादिकर्मापि साध्यते ।
'क्वचित्' इति यत्रैव मुख्यो नेता फलसिद्धौ सहायमपेक्षते तत्रैव प्रासङ्गिकम् । न सर्वत्र । यथा भट्टश्रीभवनुतचूड़ामणिविरचितायां कोशालिकायां नाटिकाया कोशालिकाप्राप्तिमधिकृत्य प्रवृत्तस्य वत्सराजस्य न प्रासङ्गिकम् ।
यथा वास्मद्रपझे सत्य-हरिश्चन्द्रे नाटके प्रतिज्ञानिर्वाहं प्रति प्रवृत्तस्य 'हरिश्चन्द्रस्य । 'तच्चतुर्विधम्' इति 'तत्' सामान्येन वृत्तम् ।।१०।। यह फल जिसको प्राप्त होता है वह 'चरित' यहां मुख्य ['चरित' कहलाता है। उससे भिन्न [चरित उसका] अङ्ग होनेसे प्रासङ्गिक [चरित कहलाता है । राम-विषयक नाटकों में सुग्रीवमंत्री, शरणागत विभीषणको रक्षा, रावरण-बध और सीताका लौटाना प्रादिमेंसे सीताके प्रत्यानयनका ही प्रधान रूपसे वर्णन किया है। अन्यों का वर्णन करने में उस [सीता-प्रत्यानयन] के सम्पादनके लिए ही प्रवृत्त होनेसे [सोता-प्रत्यानयन ही प्रधान फल है। अन्य प्रधान नहीं है] इसलिए वे अंग [कहलाते हैं।
कवि भी अपनी इच्छासे [किसी विशेष फलका उत्कर्ष वर्णन नहीं कर सकता है। किन्तु प्रौचित्यके अनुसार [ही वह उत्कर्षका वर्णन करता है । जिस धीरोद्धत प्रादि [नायक के केलिए जो फल उचित हो उसका ही उत्कर्ष वर्णन करना चाहिए। और मुख्यवृत्तके लिए किए गए प्रयत्नके द्वारा ही प्रासङ्गिक [वृत्त को भी सिद्धि करनी चाहिए। उस [प्रासं. गिक वृत्तको सिद्धि] के लिए अलग प्रयत्न करनेपर तो वह भी मुख्य बन जावेगा। 'तापसवत्सराज' नामक नाटक में वत्सराज [उदयन] के कौशाम्बीके राज्यको प्राप्ति रूप मुख्य फलके लिए किए गए [वत्सराजके मंत्री यौगन्धरायणके व्यापारसे ही वासवदत्ताका समागम और पद्मावतीकी प्राप्ति प्रादि ख्य प्रासनिक कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं।
[इसी प्रकार सर्वत्र मुख्य फलकी प्राप्तिके लिए किए जाने वाले व्यापारसे ही प्रासङ्गिक कार्योंकी सिद्धि दिखलानी चाहिए। उसके लिए अलग व्यापारको आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । अन्यथा वह अङ्ग न रहकर प्रधान बन जायगा] ।
[कारिकामें पाए हुए] 'क्वचित्' इस पदसे [यह सूचित किया है कि जहाँ मुख्य नायक [अपने] फलको सिद्धिके लिए सहायकको चाहता है वहां ही प्रासङ्गिक [चरित] को प्रावश्यकता होती है। [वहींपर उसका वर्णन करना चाहिए] सब जगह नहीं। जैसे श्री भवनुत चूड़ामरिण भट्ट द्वारा विरचित 'कोशालिका' [नामक नाटिकामें कोशालिका [नायिका] की प्राप्तिकेलिए प्रवृत्त वत्सराजका [कोई सहायक प्रहात न होने से उसमें] प्रासङ्गिक [वृत्त] या चरित्र नहीं है।
अथवा जैसे हमारे बनाये हुए 'सत्यहरिश्चन्द्र' [नामक नाटकमें अपनी प्रतिज्ञाको
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