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का० ११, सू० ६ ] प्रथमो विवेकः
[ ३१ अथ चातुर्विध्यमेव स्पष्टयतिसूत्र ६]--नीरसानुचितं सूच्यं, प्रयोज्यं तद्विपर्ययः ।
ऊह्यं तदविनाभूतं, उपेक्ष्यं तु जुगुप्सितम् ॥११॥ नीरसं अरञ्ज कम् । अनुचितं सरसप्यनहं आलिङ्गन चुम्बनादि । तत् सूर्य विष्कम्भादिभिर्जाप्यम्। तस्य नीरसानुचितस्य विपर्ययः सरसमुचितं च प्रयुज्यते, वाचिकादिभिरभिनयैः सामाजिकानां साक्षादिव क्रियते इति प्रयोज्यम। तयोः सूच्यप्रयोज्ययोरविनाभूतं देशान्तरप्राप्त्यादौ गमनादि ऊह्यते स्वयं वितयं ते इति उपम् । न नाम देशान्तरप्राप्तिः पादविहरणादिकं विना भवति । उपेक्ष्यते ब्रीडादिहेतुत्वादवगण्यते इत्रपेक्ष्यम्'। जुगुप्सनीयं भोजन-स्नान-शयन-प्रस्रवणादि । यत् पुनरुत्तररामचरिते सीतायाः, अस्मदुपज्ञ नलविलासे अरण्ये दमन्त्याश्च प्रयुक्तं तत् प्रस्तुततोपयोगित्वात् रञ्जकत्वाच्च न दुष्टम् ।।११।।। पूर्ण करनेकेलिए प्रवृत्त हरिश्चन्द्रका [कोई सहायक या प्रासङ्गिक वृत्त या चरित्र नहीं है । कारिकाके अन्तमें पाए हुए ] 'तच्चतुर्विधम्' इस [पद] में 'तत्' [पदसे सामान्य रूपसे चरित [अर्थात् वृत्त, (१) सूच्य, (२) प्रयोज्य, (३) अभ्यूह्म अर्थात् कल्पनीय और (४) उपेक्ष्य पादि भेदोंसे चार प्रकारका हो सकता है यह बात प्रन्धकार द्वारा सूचित को रई है] ॥१०॥ चरितकी चार अवस्थाएँ या स्थितियाँ- .
अब [पिछली कारिकामें बतलाई हुई चरितकी] चार प्रकारको स्थितिको ही [इस कारिकामें स्पष्ट करते हैं
[सूत्र ]-[प्रस्तुत चरितमें जो कुछ भाग] नीरस या अनुचित हो वह [विखलाने योग्य नहीं होता है अपितु विष्कम्भका दिने अन्योंकी उक्ति द्वारा] सूचित करने योग्य [होता है। [अतः उसको 'सूच्य' वृत्त कहा जाता है, उसके विपरीत [अर्थात् सरस और उचित भाग हो] 'प्रयोज्य' [अभिनय द्वारा दिखलाने योग्य होता है। उसका अविनाभूत [अर्थात् जिसके बिना 'प्रयोज्य' भागका अभिनय ही न हो सके वह भाग स्वयं] 'ऊह्य' [अर्थात् कल्पनीय होता है। और घृणा उत्पन्न करने वाला [जुगुप्सित भाग] 'उपेक्षरणीय' [होता] है [अर्थात् उसका अभिनय नहीं करना चाहिए] ॥११॥
नीरस अर्थात् जो मनोरञक न हो। अनुचित अर्थात् जो सरस होनेपर भी [दिखलानेके] अयोग्य हो जैसे प्रालिङ्गन, चुम्बन प्रादि, वह 'सूच्य' अर्थात् विष्कम्भक प्रादि द्वारा ज्ञापनीय [अर्थात् अन्योंके वर्णन द्वारा बोध्य होता है। [मागे 'तद्विपर्पयः' का अर्थ करते हैं] उसका अर्थात् नीरस और अनुचित रूप 'सूच्य भागका विपरीत अर्थात् सरस और उचित है वह प्रयुक्त किया जाता है अर्थात् वाचिक प्रादि [चारों प्रकारके] अभिनयों द्वारा सामाजिकों के सामने प्रत्यक्ष-जैसा किया जाता है इसलिए 'प्रयोज्य' [कहलाता है। उन 'सूच्य' तथा 'प्रयोज्य' दोनोंका अविनाभूत [अर्थात् जिसके बिना 'सूच्य' अथवा 'प्रयोज्य' भागका उपपादन हो न हो सके] जैसे अन्य स्थानपर पहुंचनेके लिए [अपरिहार्य] गमन 'प्रादिको स्वयं कहा, १. उपेक्ष्यते वीडादिहेतुत्वादवगण्यते इत्युपेक्ष्यं योज्यम् । २. तयोः सूच्य-प्रयोज्ययो जुगुप्सनीयं भोजन-स्नान-शयन प्रस्रवणादि ।
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