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नाट्यदर्पणम्
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अथ धीरोद्धतादीनां यथोद्देशमर्थमाह[ सूत्र० ७ ] - धीरोद्धतश्चलश्चण्डो दर्प दम्भी
विकत्थनः ।
।
धीरोदाचोऽतिगम्भीरो न्यायी सच्ची क्ष्मी स्थिरः ||८|| शृङ्गारी धीरललितः कलासक्तः सुखी मृदुः । नयी ॥६॥
[ का०८-६, सू० ७
धीरशान्तोऽहङ्कारः कृपालुर्विनयी
अकातरत्वं धीरशब्दस्यार्थः सर्वत्र समान एव । चलत्वादयः पुनरुद्धतादीनां शब्दानामर्थाः । चलोऽनवस्थितः । चण्डो रौद्रः । दर्पः शौर्यादिमदः । दम्भः कूट प्रयोगः । विकत्थनः स्वप्रशंसी । श्रतिगम्भीरो दुरवबोधमध्यः । सत्त्वी शोक - क्रोधाद्यनभिभवनीयः । स्थिरो विमृश्यकारी ।
कलासक्तो गीतादितत्परः । सुखी मन्त्रिन्यस्तराज चिन्ताभारत्वान्निराधिः । मृदुरक्रूराचारः । अनहङ्कारः सर्वथाप्यनवलेपः । धीरोदात्तस्तु विनयच्छन्ना वलेपः, इति भेदः । विनयी गुरुजनाद्यनुल्लंघीति । उपलक्षणमात्रं चैतत् तेनोद्धतादीनां यथौचित्यमपरेऽपि धर्मा दृष्टव्या इति ||८
है । जो नाटकके नायकको केवल धीरावात ही मानते हैं वे भरतमुनिके सिद्धान्तको नहीं समझते हैं। और नाटकोंमें धीरललित प्रावि नायकोंके भी पाए जानेसे कवियोंके व्यवहारसे अपरिचित प्रतीत होते हैं । [ प्रर्थात् भरतमुनिके सिद्धान्त तथा कवियोंके व्यवहार दोनोंके अनुसार नाटकों में चारों प्रकारके नायकोंका चित्रण किया जा सकता है। केवल धीरोदात ही नायक हो ऐसा कोई बन्धन नहीं है ] ||ou
अब [ उद्देश] क्रमके अनुसार धीरोद्धत श्रादिका अर्थ बतलाते हैं
[ सूत्र ७ ]धीरोद्धत [नायक] अस्थिर चित्त, भयङ्कर, अभिमानी, छली, श्रात्म- श्लाघी, [ होता है]। धीरोदास [ नायक ] अत्यन्त गम्भीर, न्यायप्रिय, शोक - क्रोध श्राविके वशीभूत न होने वाला [सरवी ], क्षमाशील और स्थिर [ सोच-विचार कर कार्य करने वाला होता है ] ॥८॥
[ सूत्र ७ ] धीरललित [ नायक ] शृङ्गारप्रिय, [गीत वाद्यादि] कलानोंका प्रेमी [ राज्यभारको मन्त्रीको सौंपकर निश्चित हो जाने वाला ] सुखी और कोमल स्वभावका [ होता है] । और धीरप्रशान्त [ नायक ] सर्वथा श्रहङ्कार-रहित, दयालु, विनयशील और नीति अवलम्बन करने वाला होता है ।॥
[कारिकामें श्राए हुए ] 'धीर' शब्दका अर्थ प्रकातरत्व [न घबड़ाना ] है । वह [ धीरोदात्तं आदि चारों प्रकारके नायकोंमें] सबमें समान ही है और चलत्व श्रादि उद्धत प्रादि शब्दों के • श्रर्थ हैं । 'चल' अर्थात् प्रस्थिरचित्त । 'चण्ड' श्रर्थात् भयङ्कर । शौर्यादिके घमण्डका नाम 'दर्प' है । 'वम्भ' का अर्थ कूटप्रयोग [छल ] है । श्रात्मश्लाधा करने वाला 'विकत्थनः ' [ होता ] है । 'प्रतिगम्भीर' अर्थात् जिसके मनकी बात सहज न समझी जा सके। 'सत्त्वी' अर्थात् शोक- क्रोध विके वश में न होने वाला 'स्थिर' अर्थात् सोच-विचार कर कार्य करने वाला ।
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कलासक्त प्रर्थात् गीत [वाद्य] प्रावि [ कलानों] का प्रेमी । 'सुखी' अर्थात् राज्यकी चिन्ताका भार मन्त्रीको सौंपकर निर्शचत हो जाने वाला । 'मृदु:' अर्थात् क्रूर आचरण न
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