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________________ १२४ ] नाट्यदर्पणम्ं [ का० ४८, सू० ६३ 'यथारुचि इति वृत्तवैचित्र्यानुरोधेनात्र भवन्ति, न भवन्ति च । पुष्पादीनि पुनः पचावश्यं प्रतिमुखसन्धौ भवन्त्येव । त्रयोदशाप्येतानि प्रतिमुख एव सुतरां निर्बन्धमर्हन्ति । उद्देशक्रमश्च निबन्धेषु नापेक्षणीय इति ।।४६-४७|| (१) अथ विलासः [ सूत्र ६३ ] -- विलासो नृ-स्त्रियोरीहा, मृ-स्त्रियोः परस्परमीहा रत्यभिलाषः । यथाभिज्ञानशाकुन्तले मुखसन्धावुपलब्धायां नायिकायां प्रतिमुखे तद्विषयो राज्ञो विलासः । तत्र हि राजा आह "कामं प्रिया न सुलभा मनस्तु तद्भावदर्शनाश्वासि । अकृतार्थेऽपि मनसिजे रतिमुभयप्रार्थना कुरुते ॥ [स्मितं कृत्वा ] एवमात्माभिप्रायसम्भावितेष्टजनचित्तवृत्तिः प्रार्थयता विप्रलभ्यते । कुतः - 'यथारुचि' इसका यह अभिप्राय है कि कथावस्तुकी विचित्रता के अनुसार [ये पाठ भङ्ग प्रतिमुखसन्धिमें] होते भी हैं और नहीं भी हो सकते हैं। [अर्थात् उनकी स्थिति अपरिहार्य नहीं है] । शेष पुष्प आदि पाँच - [भ] तो प्रतिमुखसन्धिमें प्रवश्य होते ही हैं। ये तेरहों प्रङ्ग प्रतिमुखसन्धिमें हो सन्निविष्ट होते हैं [अन्य सन्धियोंमें प्रयुक्त नहीं होते हैं] । इनकी रचनायें उद्देशक्रम अपेक्षित नहीं होता है । [प्रर्थात् जिस क्रमसे यहाँ गिनाए गए हैं उसी क्रमसे इनकी रचना हो यह प्रावश्यक नहीं है ] ॥४६-४७॥ इस प्रकार ४६-४७ दो कारिकानों में प्रतिमुख सन्धिके तेरह श्रङ्गोंके नाम गिनाकर तथा उनमें से पाँचकी अनिवार्य स्थिति एवं प्राठको ऐच्छिक स्थितिका उल्लेख करके प्रब उनके लक्षण प्रादि क्रमशः प्रारम्भ करेंगे। इनमें सबसे प्रथम प्रङ्ग 'विलास' है । इसलिए सबसे पहिले उसीका लक्षण करते हैं । (१) विलास - . अब [ प्रतिमुखसन्धिके श्रङ्गोंमेंसे प्रथम प्रङ्ग] 'विलास' [का लक्षरण करते हैं ][ सूत्र ६३ ] — स्त्री और पुरुषकी [ परस्पर सम्मिलनको ] इच्छा 'विलास' [नामक, प्रतिमुखसन्धिका प्रथम अंग कहलाती ] है । पुरुष तथा स्त्रीको परस्पर [ सम्मिलनकी] इच्छा प्रर्थात् रतिको कामना [ विलास नामक प्रङ्गके रूपमें कही जाती ] है । जैसे प्रभिज्ञानशाकुन्तल में मुखसन्धिमें [ प्रथम अङ्कमें नायिका ] शकुन्तला प्राप्त हो जानेपर प्रतिमुखसन्धिमें [द्वितीय में] उसके विषयमें राजाका [रति विषयक ] श्रभिलाष विलास । उसमें राजा [दुष्यन्त अपने इस अभिलाषको व्यक्त करते हुए ] कहते हैं- "प्रिया [ शकुन्तला इस समय ] भले ही प्राप्त न हो किन्तु मेरा मन तो उसके भावको देखकर विश्वस्त है [कि वह मुझे प्रेम करती है इसलिए जल्दी या देरसे वह मुझको प्रवश्य प्राप्त होगी ] । क्योंकि कामदेवके कृतार्थ न होनेपर भी [अर्थात् सम्भोगाभिलाषके पूर्ण न होने पर भी ] दोनों ओोरका प्रेम स्वयं रति [ एक अपूर्व आनन्द ] को प्रदान करता है । [फिर मुस्कराकर राजा कहता है] — इस प्रकार अपने मनके अभिप्रायके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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