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________________ का० ४८, सू० ६३ ] प्रथमो विवेकः [ १२५ स्निग्धं वीक्षितमन्यतोऽपि नयने यत् प्रेरयन्त्या तया, यातं यच्च नितम्बयोगुरुतया मन्दं विलासादिव । मा गा इत्युपरुद्धया यदपि तत् सासूयमुक्ता सखी, सर्व किल तत् मत्परायणमहो कामः स्वतां पश्यति ॥" इत्यादिना राज्ञो रतिसमीहा । यथा वा नलविलासे तृतीयाले "दमयन्ती-[राजानमवलोक्य स्वगतम] कहमेस सयं भयवं पंचबाणो? अहवा वरायस्स अणंगरस कुदो ईदिसो अंगसोहग्गप्पन्भारो ? ता कदत्थो दमयन्द्रीयाए अंगचंगिमा।" इति । [कथमेष स्वयं भगवान पञ्चबाण: ? अथवा वराकस्यानङ्गस्य कुत ईडशोऽङ्गसौभाग्यप्राग्भारः ? तत् कृतार्था दमन्त्या अंगचङ्गिमा । इति संस्कृतम्] । यथा वास्मदुपझे कौमुदीमित्राणन्दनाम्नि प्रकरणे तृतीयेऽङ्के"मित्राणन्द:---प्रिये ! वक्त्रं शीतरुचिर्वचांसि च सुधा दृष्टिश्च कादम्बरी, बिम्बोष्ठः पुनरेष कौस्तुभमणिः मूर्तिश्च लक्ष्मीस्तव । इष्टजनकी चित्तवृत्तिको कल्पना करके प्रेमी जन स्वयं अपनेको धोखा देते हैं। क्योंकि अपने मनको भावनाके अनुसार वे यह समझने लगते हैं। कि [उनकी प्रेमपात्रने दूसरी ओर दृष्टि डालते हुए भी जो मधुरताके साथ देखा [वह शायद मेरी प्रोर ही देखा था], नितम्बोंके भारके कारण जो विलासपूर्वक धीरे-धीरे गमन किया, और [सखोके द्वारा] जानी नहीं इस प्रकार रोके जानेपर जो नाराज होकर [उस सखी को] फटकारा था कहा था वह सब मेरे ही कारण था । पाश्चर्य है कि काम [या कामी पुरुष अपने प्रेम पात्रके सारे कार्यों में अपना सम्बन्ध ही देखता है।" इत्यादिसे राजा [दुष्यन्त] की रतिको इच्छा प्रदर्शित की गई है। अतः यह प्रतिमुखसन्धिके विलास नामक प्रथम प्रङ्गका उदाहरण है। अथवा जैसे नवविलासके तृतीय अङ्कमें "दमयन्ती-[राजाको देखकर स्वगत अपने मनमें कहती है]-अच्छा यह तो स्वयं भगवान् कामदेव [मा गए] हैं । अथवा [वह कामदेव तो शरीर रहित अनङ्ग है] उस विचारे अनङ्ग के पास इतने देहसौभाग्यको सम्पत्ति कहाँ हो सकती है। [इसलिए यह कामदेव नहीं है] । इसलिए निश्चय ही ये राजा नल हैं] तब तो दमयन्तीका अर्थात् मेरा] अङ्ग-सौन्दर्य कृतार्थ हो गया। __ इसमें राजा नलके प्रति दमयन्तीकी रतिका प्रदर्शन होने से यह भी 'विलास' नामक प्रतिमुखसन्धिके प्रथम अङ्गका उदाहरण है। अथवा जैसे हमारे बनाये हुए 'कौमुदी-मित्राणन्द' नामक प्रकरणमें तृतीय प्रमेंमित्राणन्द-प्रिये ! [तुम्हारा] मुख चन्द्रमा, [तुम्हारी] वाणी अमृत, [तुम्हारी दृष्टि कावम्बरी [मदिरा], [तुम्हारा] अषरोष्ठ कौस्तुभमरिण और तुम्हारी मूर्ति लक्ष्मी रूप है। [इस सबको देखकर ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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