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________________ २३० ] _ नाट्यदर्पणम् [ का०८२-८३, सू० १३०-१३१ अथ कर्तव्योपदेशेन नायकमुद्दिशति[सूत्र १३०]-एको विटो वा धूर्तो वा वेश्यादेः स्वस्य वा स्थितिम् । ___ व्योमोक्त्या वर्णयेदत्र वृत्तिर्मुख्या च भारती ॥ [१७]८२॥ एको द्वितीयपात्ररहितः। विटः पल्लवकः, धूर्तश्चौरः द्यूतकारादिः, वेश्यादेः पण्यस्त्री-कुलटा-शम्भल्यादेः । स्वस्यात्मनो वा स्थितिं चरितं व्योमोक्त्या रङ्गाप्रविष्टद्वितीयपात्रसम्बन्धिवचनानुवादेन वर्णयेदङ्गविकारैः सामाजिकानवगमयेत् । अत्र भाणे । भारती चात्र वृत्तिः प्रभूततया प्रधानम् । वीर-शृङ्गारयोः प्रधानत्वेऽपि व्योमोक्त्या वाचिक एवात्राभिनयो न सात्त्विकाङ्गकाविति, न सात्त्वती कैशिकी वा प्रधानम् । अत्र विटादीनां परवचनात्मक वृत्तं प्रेक्षकाणामवचनीयत्वापादनार्थं व्युत्पाद्यत इति । अत्र केचित् विटाकल्पितं वृत्तं, नायकं च विटमेव मन्यन्ते ॥ [१७] ८२ ॥ • अथ प्रहसनस्य समय :[सू० १३१]-वैमुख्यकार्य वीङ्गि ख्यातकौलीनदम्भवत् । हास्याङ्गि भाणसन्ध्यङ्क-वृत्ति प्रहसनं द्विधा ॥[१८] ८३॥ अब [नायकके कर्तव्यके प्रदर्शन द्वारा नायकका वर्णन करते हैं [सूत्र १३०]--एक विट या धूर्त [नायक] वेश्यादिको अथवा अपना स्थितिको 'आकाशभाषित' के द्वारा इसमें वर्णन करता है और इसमें भारती वृत्तिको प्रधानता होती है ॥ [१६] ८२॥ ___एक अर्थात् दूसरे पात्रसे रहित विट अर्थात् [पल्लवक अर्थात्] वेश्यासक्त और धूर्त चोर जुमारी आदि [ भारणका नायक होता है ] । वेश्यादि अर्थात् बाजारू औरत, कुलटा [छिनाल, व्यभिचारिणी स्त्री.] और [शम्भली अर्थात्] कुट्टिनी, दूती आदिके (चरितको], अथवा अपनी स्थितिको या चरितको रंगमें प्रविष्ट न होने वाले द्वितीय पात्रके वचनोंका अनुवाद करके [अर्थात् रंगमें अनुपस्थित किसी अन्य पात्रके साथ वार्तालापके रूपमें किए जाने वाले अाकाशभाषितके द्वारा वर्णन करे, और अङ्ग विकारोंके द्वारा सामाजिकोंको उसे समझावे । 'अत्र' इसमें अर्थात् भारत में। और प्रचुरमात्रामें होनेसे इस [ भारण ] में भारती वृत्ति प्रधान होती है। वीर और शृङ्गार रसोंकी प्रधानता होनेपर भी आकाशभाषित [के रूपमें अथित होनेसे वाचिक ही अभिनय होता है । सात्त्विक या आङ्गिक नहीं। इसलिए सात्वती अथवा कैशिको वृत्तिको प्रधानता [भारणमें नहीं होती है । इसमें विट प्रादि का दूसरोंको ठगने वाला चरित्र भी, प्रेक्षक ठगे न जा सकें इस प्रकारकी शिक्षा देनेकेलिए. दिखलाया जाता है । कुछ लोग इस [भारण] में कथाभागको [सर्वथा] विट द्वारा कल्पित तथा नायक [सदा] विट ही होना चाहिए ऐसा मानते हैं ।[१७]८२॥ अष्टम रूपक भेद-प्रहसनका लक्षण अब 'प्रहसन' का [लक्षर करनेका अवसर प्राता है [सूत्र १३१] - [पाखण्डियों प्रादिके प्रति उदासीनताको उत्पन्न करानेवाला, वीथीके अङ्गोंसे युक्त, प्रसिद्ध जनापवाद और मिथ्या दम्भसे युक्त, और भागके समान [मुख निर्वहरण १. रतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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