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का० ८१, सू० १२६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२६ अथ भाणस्य क्रमप्राप्तो लक्षणावसरः[सूत्र १२६]-भारणः प्रधानशृङ्गार-वीरो मुख-निर्वाहवान् ।
एकाङ्को दशलास्याङ्गः प्रायो लोकानुरञ्जकः ॥ [१६] ८१॥
भण्यते व्योमोक्त्या नायकेन स्वपरवृत्तं प्रकाश्यतेऽत्रेति 'भाणः' । शौर्य-सौभाग्यवर्णना बाहुल्येनात्र वीरशृङ्गारयोः प्राधान्यम् । शृङ्गाराङ्गत्वाद् हास्योऽप्यत्राङ्गतया वर्णनीयः। तथा मुख-निर्वहणसन्धिसम्पूर्ण एकाहनिवर्तनीयत्वादेकाङ्कः । दश चात्र लास्याङ्गानि निबध्यन्ते । तानि चैतानि यथा च
गेयपदं स्थितं पाठ्यमासीनं पुष्पगण्डिका । प्रच्छेदकं त्रिगूढं च सैन्धवाख्यं द्विगूढकम् ।।
उत्तमोत्तमकं चैवमुक्त-प्रत्युक्तमेव च । इति । प्रायेण लोकस्य पृथग्जनस्य विट-वेश्यादिवृत्तात्मकत्वाद् रञ्जनात्मकः । विटधूर्त-कुट्टन्यादिचेष्टितं राजपुत्रादीनामपि चातुर्यार्थं ज्ञेयमेवेति प्रायोग्रहणमिति ।।..
[१६] ८१॥ ७. सप्तम रूपक भेद 'भाण' का लक्षण
अब क्रमसे भारणका लक्षण करनेका अवसर प्राता है [इसलिए भारणका लक्षण करते हैं।
__ [सूत्र १२६] शृङ्गार या वीर रस प्रधान, मुख सन्धि तथा निर्वहण [दो हो सन्धियों से युक्त, दश लास्याङ्गोंसे पूर्ण, एक प्रङ्क वाला, और प्रायः साधारण जनोंका मनोरञ्जन करनेवाला [रूपकभेद] 'भारण' [कहलाता है ॥ [१६] ८१॥
जिसमें नायक [अन्य किसी पात्रके रङ्गभूमिमें उपस्थित न होनेसे] अाकाशोक्ति द्वारा अपने और दूसरेके वृत्तको कहता या प्रकाशित करता है। वह [भव्यते यत्रेति भागः' इस ग्युत्पत्ति के अनुसार] 'भारण' कहलाता है। इसमें शौर्य या सौभाग्यका अधिक वर्णन होनेके कारण वीर तथा शृङ्गारका प्राधान्य होता है। शृङ्गारका अङ्ग, होनेसे हास्यरसका भी इसमें प्रङ्ग रूपसे वर्णन होना चाहिए। और एक ही दिन में पूर्ण होनेवाले कथाभागसे युक्त होनेसे एक अङ्क वाला, तथा मुख और निर्वहरण [दो हो] सन्धियोंसे युक्त ['भारण' होता है । इसमें दश लास्याङ्गोंका भी वर्णन होता है । वे [दस लास्यांग] निम्न प्रकार कहे गए हैं
१ गेयपद, २ स्थित, ३ पाट्य, ४ पुष्पगण्डिका, ५ प्रच्छेदक, ६ त्रिगढ, ७ सैन्धव नामक द्विगूडक, ८ उत्तमोत्तमक, ६ उक्त प्रौर १० प्रत्युक्त [ये दा लास्याङ्ग कहे गए हैं । [इन सबका प्रयोग भारणमें होता है ।
[कारिकामें पाए हुए 'प्रायो लोकानुरञ्जकः' इस भागको व्याख्या करते हैं] प्रायः लोकका अर्थात् चिट् धूर्त, और वेश्या आदिके वृत्तसे युक्त साधारण लोगोंके मनोरञ्जनका कारण होता है [उच्च कोटिके लोगोके मनोरञ्जनका कारण नहीं होता है] । विट, धूर्त कुट्टिनी प्रादिका चरित्र चातुर्यको शिक्षाके लिए राजपुत्रादिको भी जानना चाहिए इसलिए [कारिकामें ] 'प्रायः' पदका ग्रहण किया गया है ॥ [१६] ८१ ॥ १. एक त्रिमूढं । २ द्विमूढकं ।
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