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नाट्यदपणम् । का० ७६-८०, सू० १२८ च स्रग्धरादिकम् । श्रादिशब्दाद् बक्षरं शार्दू लाद्योजोगुणयुक्तं गृह्यते, न पुनर्गायत्र्यादि । तेन हि बह्वर्थाभिधाने क्लिष्टता स्यात् । केचित् पुनरल्पाक्षरं गायत्र्यादिकं अर्धसम-विषमादिकं चात्र पर्व मन्यन्ते । अनेन च गद्यस्यात्र न निषेधः पद्यवैशिष्टयविधानार्थत्वादिति। .
___ समवकारे च संक्षिप्तः सहास्यः शृङ्गारः, कपटो विद्रवो देवासुरवैरनिमित्तं, सम्प्रहारादिकं च दिव्यप्रभावसाध्यम् । लौकिकीभिरुपपत्तिभिहीनं माया-इन्द्रजाल-प्लुतलंघन-उच्छेद्य-पुस्तावपातादिबहुलया प्रारभट या वृत्त्या सर्वमपि प्रहसन-कपट-विद्रवादि कुतूहलिनां परां तुष्टिमुत्पादयितुं व्युत्पाद्यते । यदाहु :
शूरास्तु वीर-रौद्रषु नियुद्धेष्वाहवेषु च।
बाला मूखोः स्त्रियश्चैव हास्य-शोक-भयदिषु॥ 'परितुष्यन्तीति वाक्यशेष इति ॥ [१४-१५] ७६-८०॥ कोई एक कपट उपाय [के रूप में, [कार्यमें] अापत्तिको सम्भावना रूपमें एक विज्ञव, और फल रूपमें [कोई एक शृङ्गार दिखलाना चाहिए । इसी प्रकार द्वितीयं तथा तृतीय अडरों में [भी एक कपट उपाय रूपमें, आपत्तिको सम्भावना रूपमें एक-एक प्रकारका विद्रय, और फल रूपमें एक-एक प्रकारके शृङ्गारका वर्णन करना चाहिए। किन्तु इस बातका विशेष रूपसे ध्यान रखना चाहिए कि] प्रथम अङ्क में काम-भृङ्गार ही रखा जाय । मनोरञ्जनामें उस [काम-शृङ्गार] के साधकतम होनेसे उसका प्रथम प्रहण किया जाता है। इसी कारण इसमें प्रहासको रचना भी की जाती है । पद्यमें स्रग्धरा प्रादि [लम्बे पद्य ही समयकार में प्रयुक्त करने चाहिए] प्रादि शब्दसे अधिक प्रक्षरों वाले और प्रोजो गुणयुक्त शार्दूलविक्रीडित प्रादि [वृत्तों का ग्रहण होता है । [अल्प अक्षरोंवाले] गायत्री प्रादि [छन्दों] का ग्रहण नहीं होता है। उस [गायत्री प्रादि अल्पाक्षर छन्दों) के ग्रहण करनेसे लम्बे अर्थका वर्णन करने में कठिनाई होगी। [इसलिए स्वल्पाक्षर छन्दोंका ग्रहण समवकारमें नहीं करना चाहिए। कोई लोग स्वल्पाक्षर गायत्री प्रादि और अर्धसम तथा विषम प्रादि छन्दोंका इसमें ग्रहण मानते हैं । इस [पद्योंका विशेष रूपसे नाम लेने से यहाँ गद्यका निषेध [अभिप्रेत] नहीं है । पद्योंके प्राषिक्यका विधान करनेके लिए ही [स्रग्धरादिका] विधान होनेसे ।।
समवकारमें हास्य सहित संक्षिप्त शृङ्गार, और देवों तथा असुरोंके वरके कारण होने वाला कपट, विद्रव तथा विध्य प्रभावसे साध्य युद्धादिक [ला वर्णन पाया जाता है। लौकिक युक्तियोंसे रहित [अर्थात् लौकिक उपायोंसे सिद्ध न होने वाला] माया, इन्द्रजाल, उछलना-कूदना [उच्छेद्य अर्थात् नष्ट करने योग्य] शत्रुके पुतले प्रादिका गिराना प्रादि, जिसमें मुख्य रूपसे किया जाता है इस प्रकारको प्रारभटो वृत्तिसे सम्पादित प्रहसन, कपट, विद्रय प्रादि सभी कुछ कोतूहलोत्सुक जनताको प्रत्यन्त आनन्द प्रदान करते हैं [इसलिए उनका वर्णन किया जाता है] । जैसा कि कहा भी है कि
शूर लोग वीर रौद्र रसोंमें, मल्लयुद्ध और युद्धोंमें [मानन्द अनुभव करते हैं] और बालक, मूर्ख तथा स्त्रियाँ हास्य, शोक, भय आदिमें [प्रानन्दका अनुभव करते हैं।
'प्रसन्न होते हैं यह वाक्य शेष है [अर्थात् इस वाक्यको ऊपरसे जोड़ लेना चाहिए ॥[१४-१५] ७९-८० ॥
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