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________________ का० १२८-२६, सू० १८२ ] तृतीयो विवेकः अमर्षो मरणं मोहो निद्रा सुप्तौग्य-दृष्टयः । विषादोन्माद-दैन्यानि वीडा त्रासो वितर्कणम् ॥ ॥ [२६] १२८ ॥ गर्वोत्सुक्यावहित्थानि जाड्यालस्य-विबोधनम् । त्रयस्त्रिशद् यथायोगं रसानां व्यभिचारिणः ॥ ॥ [२७] १२६॥ 'त्रयस्त्रिंशत' इति द्वन्द्वानुवादमात्रम् । अन्येऽपि पुनः सम्भवन्ति । यथा शुत्तृष्णा-मैत्री-मुदिता-श्रद्धा-दया-उपेक्षा-रति-सन्तोष-क्षमा-मार्दव - आर्जव - दाक्षिण्यादयः, तथा स्थायिनोऽनुभावाश्चेति । 'यथायोगम्' इति रसौचित्यानतिक्रमेण । तेन केचित् साधारणाः, केचित् पुनरसाधारणाः । एतच्च यथारसं निर्णीतमेवेति । ॥ [२५-२७] १२७-१२६ ।। (१) अथैषां प्रत्येकशः स्वरूपप्रतिपादक लक्षणमुख्यते[सूत्र १८३]-निर्वेदस्तत्वधीः क्लेशवरस्यं श्वासतापकृत् । क्लेशा दारिद्र-य-व्याध्यपमानेा-भ्रमाक्रोश-ताडनेष्टवियोग-परविभूतिदर्श १५. अमर्ष, १६. मरण, १७. मोह, १८. निद्रा, १६. सुप्ति, २०. हर्ष, २१. उग्रता, २२. विषाद, २३. उन्माव, २४. दैन्य, २५. वीड़ा, २६. त्रास, २७. वितकं । २८, गवं, २६. प्रौत्सुक्य, ३०. प्रवाहित्था [ प्राकार-गोपन], ३१. जडता, १२. मालस्य, और ३३. विबोध-ये तैतीस पौचित्यके अनुसार [यथायोग] रसोंके व्यभिचारित भाव होते हैं। [२५-२७] १२७-१२६ । तैतीस कहनेसे इस [ तीस और तीन ] बंद [समाससे तैतीस संख्याका] अनुवारमात्र किया गया है। किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य व्यभिचारिभाव भी हो सकते हैं । जैसे-भूख, प्यास, मैत्री, मुदिता, श्रठा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा, मृदुता, सरलता, बाक्षिय पारि । और स्थायिभाव तथा अनुभाव [भी व्यभिचारिभाव हो सकते हैं। वे सब इन ३३ से अलग हैं। इसलिए ३३ संख्या केवल पूर्वकथित संख्याका अनुवादमात्र है] । 'यथायोगम्' इसका अभिप्राय यह है कि रसके प्रोचित्यके अनुसार [इनमेंसे कौन कहां किस रसमें व्यभिचारिभाव है इसका निर्णय करना चाहिए। इसलिए कुछ [व्यभिचारिभाव अनेक रसोंमें समान रूपसे विद्यमान रहनेके कारण ] साधारण होते हैं और कुछ [ निश्चित रूपसे किसी विशेष रसमें ही रहनेके कारण] असाधारण होते हैं। इस बातका निर्णय रसोंके प्रसङ्गमें कर हो चुके हैं। [२४-४७] १२७-१२६ ।। (१) अब क्रमशः इनके स्वरूपके प्रतिपादक लक्षण कहते हैं [सूत्र १८३]-तत्त्वज्ञान [ परक चित्तवृत्ति ] का नाम 'निर्वेद' है। वह क्लेशोत उत्पन्न विरसताके कारण होता है और श्वास तथा तापका कारण होता है। क्लेश अर्थात् दरिद्रता, व्याधि, अपमान, ईर्ष्या, भ्रम, फटकार [माकोस], मार, परवियोग, दूसरोंके ऐश्वर्य-वर्शन मादि । तत्वज्ञानावि रूप विभावोंसे जो वरस्य वह 'निर्वेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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