________________
३३२
नाट्यदर्पणम् । का० १३०, सू० १८४ नादयः । तत्वज्ञानादिभिर्विभावैर्यद् वैरस्यं स निर्वेदः। स च निःश्वास-सन्तापयोरुपलक्षणत्वादन्येषां च चिन्ताश्रु-वैवर्ण्य-दैन्यादीनामनुभावानां कारक इति । अयं च रसेष्वनियतत्वात् कादाचित्कत्वाच्च व्यभिचारी न स्थायी । एवमन्येष्वपि वाच्यम् ।
___ मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निर्वेदस्य शान्तरसं प्रति स्थायितां, प्रतिकूलविभावादिपरिप्रहः' इत्यत्र तु तमेव प्रति व्यभिचारितां च, ब्रुवाणः स्ववचनविरोधेन प्रतिहत इति । (२) अथ ग्लानिः[सूत्र० १८४] ग्लानिः पीडा जराऽयासः, प्रशक्तिः कार्य
कम्पभाक् ॥ [२८] १३० ॥ 'पीडा' व्याधि-वमन-विरेक-त्-पिपासादिभिरनेकधा काय-मनोदुःखम् । 'श्रायासो' व्यायामाध्वगति-सुरतादिभिः कायक्लेशः। पीडा-जराऽऽयासैरुपलक्षणादन्यैश्च । निद्रोच्छेदमनस्तापादिभिर्विभावैर्याऽशक्तिः सामर्थ्याभावः सा 'ग्लानिः' । काय कायक्षामता। कार्य-कम्पावुपलक्षणत्वात् . क्षामवाक्य-मन्दपदोत्क्षेप-वैवर्ण्य-अनुत्साहादींश्चानुभावान् भजत इति ॥ [२८] १३० ॥ कहलाता है। और वह निश्वास और सैन्तापका, तथा उनके उपलक्षणरूप होनेसे चिन्ता, अम-विवर्णता दैन्यादि अन्य अनुभावोंका भी जनक होता है। यह [निर्वेद] रसोंमें नियत न होनेसे प्रौर काबाचित्क होनेसे व्यभिचारिभाव होता हैं । इसी प्रकार अन्य [व्यभिचारिभावों] में भी [अनियतत्व और कावाचिस्कत्व होनेके कारण ही उनका व्यभिचारिभावत्व] समझना चाहिए। .. [ काव्यप्रकाशकार ] मम्मटने तो व्यभिचारिभावोंके निरूपणके प्रसङ्गमें निदको शान्तरसका स्थायिभाव कहा है और 'प्रतिकूलविभावाविग्रहे रूप रस दोषके प्रसंगमें उसी [शान्तरस] के प्रति [निर्वेद के व्यभिचारभावत्वका प्रतिपावन करके स्वयं ही अपने कथनका खण्डन कर लिया है।
इसका अभिप्राय यह हुमा कि निर्वेद स्थायिभाव नहीं होता है । सदा व्यभिचारिभाव ही होता है । मम्मटने जो व्यभिचारिभावोंके निरूपणके प्रसङ्गमें निर्वेदको स्थायिभाव माना है वह अनुचित है । और मागे स्वयं उनके कथनसे ही यह सिद्ध हो जाता है कि निर्वेद शान्तरसका स्थायिभाव नहीं अपितु केवल ग्यभिचारिभाव है। उस दशामें शान्तरसका स्थायिभाव 'शम' होगा। इसलिए यहाँ ग्रन्थकारने शमको ही शान्तरसका स्थायिभाव माना है ।।
(२) [सूत्र १३४]-प्रब ग्लानि [का लक्षण करते हैं]
पीडाका नाम ग्लानि है । वह वाक्य और श्रम प्रादि विभावों [कारणों से उत्पन्न होती है और कृशता तथा कम्प प्रावि[अनुभावों को उत्पन्न करनेवाली होती हैं ।[२८] १३०॥
ग्याधि, वमन, विरेचन, भूख, प्यास आदिके द्वारा अनेक प्रकारसे शारीरिक, मानसिक दुःखका नाम 'पीडा, है । व्यायाम, मार्गगमन और सुरतादिसे होनेवाला शारीरिक क्लेश 'मायास' [कहलाता है। पोड़ा, वाक्य और प्रायासादिसे तथा उनके उपलक्षणरूप होनेसे निद्रा न माने, मानसिक सन्ताप प्रावि अन्य विभावोंसे जो प्रशक्ति होती है वह 'ग्लानि' कहलाती है। कृशता प्रर्थात शारीरिक दुर्बलता। [और वह कम्पको जनक होती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org