SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० १३१, सू० १८६ ] तृतीयो विवेकः [ ३३३ (३) अथापस्मारः[सू० १८५]-वैकल्यं ग्रह-दोषेभ्योऽपस्मारो निन्द्यचेष्टितः । 'ग्रहाः' परग्रहणशीलाः पिशाचाद्याः। धातुवैषम्यं दोषः । बहुवचनादुच्छिष्टशून्यस्थानसेवनाशुचिसम्पर्कादेर्यद् वैकल्यं कृत्याकृत्याविवेचकत्वं सोऽपस्मारः। निन्छ विगहितं सहसा भूमिपतन-फेनमोक्ष-निःश्वसन-धावन प्रवेपन-स्तम्भ-स्वेदादिकं चेष्टितमत्रेति ॥ (४) अथ शंका[सू० १८६]-शङ्का स्व-परदौरात्म्याद् दोलनं श्यामतादियुक् ॥ [२६] १३१॥ दौरात्म्यमकार्यकरणम् । उपलक्षणत्वाच्चास्य सादृश्यादयोऽपि विभावा ग्राह्याः। दोलनं क्षोभ-सन्देहाभ्यामनवस्थित्वं चेतसः । श्रादिशब्दान् मुहुरवलोकन-अवगुण्ठनमुखौष्ठ-कण्ठशोष-जिलापरिलेहन-वेपथु-चलदृष्टित्वादयोऽनुभावा गृह्यन्ते इति । ॥ [२६] १३१॥ (५) अथासूयाकाश्यं तथा कम्पके उपलक्षणरूप होनेसे आवाज न निकलना, पैर धीरे उठना, विवरर्णता पौर अनुत्साह मावि मनुभावोंको भी बोषित करते हैं ॥१३॥ (३) अब अपस्मार का लक्षण करते हैं [सूत्र १८५] [ पिशाचादि रूप] ग्रहों तथा [वात-पित्तादि रूप] बोषोंकी विषमतासे उत्पन्न बेचैनी 'अपस्मार' कहलाता हो और वह [ भूमिपतन मावि रूप ] गहित व्यापारोंसे युक्त होता है। दूसरोंको पकड़ लेनेवाले पिशाचादि 'मह' कहलाते हैं । वात, पित्त, कफ रूप धातुमोंकी विषमता 'दोष' कहलाती है। [दोषम्यो इस बहुवचनसे उच्छिष्ट खाने, निर्जन स्थानमें रहने, और गन्दे पदार्थोसे सम्पर्क रखनेसे जो विकलता अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय न कर सकना वह 'अपस्मार' कहलाता है । 'निन्छ' अर्थात् गहित सहसा भूमिपर गिर पड़ना, फेन गिराने लगना, जोरसे श्वास लेने लगना, दौड़ना, कांपना, कड़ा पड़ जाना और पसीमा माने लगना प्रावि चेष्टाएँ इसमें होती हैं। (४) अब 'शङ्का' [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र १८६]-अपने या दूसरेके दुष्कर्मोसे [मनका कम्पन शङ्का कहलाती है। और वह ज्यामता प्राविको उत्पन्न करनेवाली होती है । [२६] १३१ ॥ 'दौरात्म्य' अर्थात अनुचित कार्योका करना [दौरात्म्य पदके उपलक्षण रूप होनेसे [सारिसे उत्पन्न शामें रच आदि रूप] सादृश्य प्रादि विभावोंका भी ग्रहण करना चाहिये । दुल तथा सम्बहके कारण मनकी अस्थिरता 'दोलन' कहलाती है। प्रादि शम्दसे बार-बार देखना, मुंह ढक लेना, मुख, प्रोष्ठ.कण्ठका सूख जाना, जीभ चलाना, काँपना, पंचन हि मावि मन्य अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । [२९] १३१ ॥ - (२) अब 'प्रसूया' [का लक्षण करते हैं] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy