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नाट्यदर्पणम् [ का० १३२, सू०१८ [सू० १८५]-द्वेषादेः सद्गुणाक्षान्तिरसूया दोषशिनी ।
श्रादिशब्दादपराध-गर्व-परसौभाग्य-ऐश्वर्य-विद्या-लीलादर्शनादिग्रहः । सद्गुणा ज्ञान-क्रियादयो विशिष्टधर्माः । एषा च दोषान् वञ्चकत्वादीनसतः सतो वा दर्शयति । उपलक्षणात् भ्रूभंग-अवज्ञा-गुणनिह्नव-मन्यु-क्रोधादयोऽनुभावा गृह्यन्त इति ॥
(६) अथ मदः[सू० १८८]-ज्येष्ठादौ मुन्मदो मद्यात्, निद्रा-हास्याघ्र कृत् क्रमात
॥ [३०] १३२ ॥ ज्येष्ठ उत्तमः । श्रादिशब्दान्मध्यमाधमौ गृह्य ते । निद्रया स्मित-मधुरास्यरागरोमहर्ष-ईषद्वथाकुलवचन-सुकुमारगत्यादयः, हास्येन स्खलन-घूर्णन-बाहुस्सन-कुटिलगमनादयः, अश्रुणा च निष्ठीवन-जिह्वास्खलन-स्मृतिनाश-मतिभ्रश-छर्दित-हिक्काकफादयो गृह्यन्ते । 'क्रमात्' इति उत्तमादौ यथासंख्यं निद्रादयोऽनुभावाः। नाटयेच रखनानिमित्तमापानमपि क्वचिदभिनीयते । तत्र च मदो व्यभिचारी सम्भवति । यत्र पुनः पात्रं पीतमद्यमेव प्रविशति, तस्य त्रासादिना मदोऽपनेयोऽन्यथा कार्यव्याघातः स्यादिति ॥ [३०] १३२ ।।
[सूत्र १८७]-द्वेषादिके कारण [किसी दूसरेके] सपुरणोंको सहन न कर सपना, 'प्रसूया' कहलाता है और वह [सदा दूसरेके दोषोंको देखने वाली होती है।।
___ मावि शम्बसे अपराष, गर्व, दूसरोंके सौभाग्य, या विद्या, या लीला मादिके दर्शनका ग्रहण होता है । सद्गुण अर्थात् ज्ञान, क्रिया प्रादि विशिष्ट धर्म । यह प्रसूया] विद्यमान या प्रविचमान बनकत्वादि दोषोंको देखने वाली होती है। [दोषरशिनी पदके] उपलक्षण म होनेसे 5 भङ्ग, अपमान, गुणोंका छिपाना, मन्यु तथा कोष, मादि [असूयाके] अनुभावोंका भी पहरण होता है।
(६) प्रब मद व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं
[सूत्र १८८] - ज्येष्ठ प्रावि [अर्थात् उत्तम, मध्यम या अधम प्रात्रों में मन-धन्य पौर निद्रा, हास्य तथा रोदनको उत्पन्न करनेवाला मानन्द 'मद' कहलाता है।[२०१५२॥
ज्येष्ठ अर्थात् उत्तम । प्रावि शम्बसे मध्यम तथा अषमका भी ग्रहण होता है। निद्रा पवसे मुस्कराहट, चेहरेपर हलकी लालिमा, रोमांच हो पाना, प्रस्त-व्यस्त बचन और सुकुमार गति माविका, 'हास्य' पबसे गिरना चक्कर हाना, हाय टोले हो बाना और लड़ल. झाना आदि, तथा 'प्रभु' पदसे थूकना, जीभ षटकारमा, स्मृतिनाश, गतिश, बमन, हिचकी, कफ प्राविका प्रहरण भी होता है। मात्' इससे यह अभिप्राय है कि उत्तम प्रापि में क्रमशः निद्रा मावि अनुभाव होते हैं। [अर्थात् मासे उत्तममें निद्रा, भयममें हास्य तथा प्रथममें रोवन होता है। स्वामीके मनोरंजनके लिए कभी मपानका भी अभिनय किया जाता है। उनमें मद व्यभिचारिभाव होता है। बो पास मद्यपान पिए ए ही पगिन करने के लिए पाता है उसका मन तो भयाविहारापुरकरमा पाहिए नहीं तो [गनिमय कार्य में विघ्न पड़ेगा। [३०] १३२॥
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