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________________ २०२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ६६-६७, सू० ११७ [सूत्र ११७] प्रकरणं वरिणग्-विप्र-सचिवस्वाम्यसकरात् । मन्दगोत्राङ्गानं दिव्यानाश्रितं मध्यचेष्टितम् ॥ १[६६]॥ दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तं क्लेशाढतच्च सप्तधा। कल्प्येन - फल-वस्तूनामेक-द्वि-त्रि-विधानतः ॥२ [६७]॥ होता है। परिणक, विप्र अथवा सचिवमेंसे कोई भी 'प्रकरण' का नायक हो सकता है । किन्तु एक 'प्रकरण' में इनमेंसे एक ही नायक होगा। इन तीनोंमेंसे 'सचिव' पदका अर्थ 'राज्यचिन्तक' किया गया है। राज्यचिन्तकमें मुख्य रूपसे 'ममात्य' प्राता है किन्तु मुख्य अमात्यके अधीन ही. सेनाविभाग भी रहता है और सेनापति भी राज्यकी चिन्ता करने वाला प्रमुख अधिकारी है इसलिए उसका भी ग्रहण इस पदसे किया जा सकता है। इस प्रकार सेनापति तथा अमात्य दोनोंका ग्रहण 'सचिव' पदसे होता है। इनमें से सेनापति तथा अमात्य ये दोनों धीरोदात्त नायक माने जाते हैं। पौर विप्र तथा वणिक ये दोनों धीरप्रशान्त नायक माने जाते हैं। प्रर्थात् 'प्रकरण में मुख्य रूपसे धीरोदात्त तथा धोरप्रशान्त नायक ही होते हैं। धीरोद्धत प्रादि नहीं। कोई-कोई प्राचीन माचार्य अमात्यको धीरप्रशान्त नायक मानते हैं। और 'प्रकरण' को धीरप्रशान्त-नायक वाला रूपक मानते हैं। किन्तु अन्धकार इस सिद्धान्तसे सहमत नहीं है । उनके मतमें प्रमात्य धीरोदात्तनायक होता है। विप्र पौर वणिक् धीरप्रशान्त नायक होते हैं। इसलिए 'प्रकरण' का नायकं धीरोदात्त भी हो सकता है और धोरप्रशान्त भी। 'नाटक' और 'प्रकरण' का. तीसरा भेद यह है कि 'नाटक में दिव्य पात्र भी नायकके सहायक-रूपमें उपस्थित हो सकते हैं। किन्तु 'प्रकरण' में दिव्य पात्रोंका प्रवेश नहीं हो सकता है । नाटक 'दिव्याङ्गम्' और 'प्रकरण' 'दिव्यानाश्रितम्' है । अर्थात् 'नाटक' में अंगरूपमें, नायकके सहायक रूपमें, दिव्य पात्रोंका उपयोग हो सकता है। प्रकरण' में नहीं। इसका मुख्य कारण 'प्रकरण' का 'क्लेशाढ्यम्' क्लेश-प्रधान होना है। दिव्य पात्र सुख-प्रधान होते हैं । और 'प्रकरण' के पात्र दु:खाढ्य होते हैं । इसलिए 'प्रकरण' में दिव्य पात्रोंका प्रवेश उचित नहीं माना गया है । 'नाटक' और 'प्रकरण' के इन मुख्य भेदोंको ध्यानमें रखते हुए ही ग्रन्धकार दो कारिकामों में 'प्रकरण' का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं वणिक, विप्र तथा सचिव इनमेंसे अलग-अलग किसी एक नायकसे पुक्त, मन्द [मध्यम] कुलकी नायिका बाला, विध्य पात्रोंका माश्रय न लेनेवाला, मन्द-बेष्टामोंसे युक्त-॥१[१६] ॥ दास, श्रेष्ठी और विटोंसे परिपूर्ण, एवं क्लेश-प्रधान [रूपक 'प्रकरण' [कहलाता है। और वह नेता, फल, तथा वस्तुप्रोंमेंसे एक-दो प्रथवा तीनके कल्पित होनेके विधान के अनुसार सात प्रकारका होता है ।। २ [६७] ॥ __इस ६४ वीं कारिकाके अन्त में ग्रंथकारने नेता, फल तथा वस्तुके कल्पित होनेके माधारपर 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए हैं। नायक, फल तथा वस्तु इन तीनके कल्पित होनेके आधारपर 'प्रकरण' के जो सात भेद बनाए गए हैं वे, उनमें एक, दो, या तीनोंकी कल्पनाके कारण बन जाते हैं। तीनों में से किसी एकके कल्पित होने के कारण तीन भेद होंगे। फिर दो-दो के कल्पित होनेपर भी तीन भेद बनेंगे । इस प्रकार छः भेद हुए । मोर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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